सोचे विचारें

कर्म भूमि पर परखने की शक्ति

मनोज श्रीवास्तव
परखने की शक्ति सर्वश्रेष्ठ शक्ति है।
सर्व शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ शक्ति परखने की शक्ति है। परखने की शक्ति के बिना हम विजयी या महारथी नही बन सकते हैं। सैल्फ रियलाईजेशन करना ही परखने की शक्ति है।

सैल्फ रियलाईजेशन का अर्थ है अपने आप को जानना और पहचानना। पहले ईश्वरी सत्ता को परखेंगें तभी सच्चाई जान पायेंगे। जब पहचानेंगे तभी समान बनेंगे। परखने की शक्ति कॉमन शब्दों में पहचानना कहलाता है। पहले ज्ञान का आधार है परमात्मा शक्ति को पहचानना अर्थात परखना।
सबसे पहले परखने की शक्ति आवश्यक है। परखने की शक्ति को नालेजफुल स्टेज कहते हैं। परखने की शक्ति की सहायता से हम आत्मिक रूप से सशक्त हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप हमारा मनोबल बढ़ जाता है।

महारथी का लक्षण हैं योद्धा बनना। महारथी अर्थात शरीर के रथ में सवार होकर अपने को रथी समझना, अर्थात पूरे शरीर पर नियंत्रण रखना होता है।
यदि हम कर्म युद्ध के मैदान में हैं तब महारथी बनकर अपने ऊपर पूरा कंट्रोल रखें। अर्थात रथी बनकर अपने शरीर या रथ को वश में रखें, तभी हम महारथी कहलायेंगे।

ईगो में हम सेना के विजयी स्वरूप बनने के स्थान पर विघ्न रूप बन जाते हैं। क्योंकि ईगो में आकर हम हलचल मचाने के निमित बन जाते हैं।

एक योद्धा सर्वशक्तियों, सर्व आकर्षणों का किनारा कर लेता है। कर्म भूमि में दो ही बात निश्चित रहती है, एक है युद्ध दुसरा है विजय। युद्ध और विजय इन दोनो बातों का लक्ष्य रखकर सदैव स्मृति में रहे कि हम युद्ध के मैदान में उपस्थित यौद्धा हैं।

यौद्धा कभी आराम पसन्द नही होता है। यौद्धा कभी आलस्य और लापरवाही का शिकार नही होता है, और यौद्धा कभी शस्त्र के बिना नही रहता है। इसके अतिरिक्त यौद्धा कभी भय के वशीभुत नही होता है, और सदैव निर्भर रहता है। यौद्धा सदैव युद्ध के अलावा कोई बात अपनी बुद्धि में नही रखता है। वह सदैव यौद्धापन की वृति और विजयी बनने की स्मृति में बना रहता है।

आज हम हर समय, हर सैकेण्ड, हर कदम में युद्ध के मैदान में खड़े हैं। मन में केवल एक ही लगन हो कि हमें विजयी बनना है, इसलिए हम सर्वसम्बन्ध, सर्वआकर्षण और सभी व्यर्थ साधनों से अपनी बुद्धि को किनारा करके डिटैच हो जाना है।
यदि हम युद्ध के मैदान में हो और अपनी बुद्धि के तारें, सम्बन्ध या साधनों में लगाकर रखते हैं तब हम सम्पूर्ण स्वतंत्र नही कहलायेंगे। यह हमारी परतन्त्रता की अवस्था है।
सम्पूर्ण स्वतंत्रता अर्थात हम जब चाहे हम इस शरीर अथवा कोई अन्य साधन का आधार लें अथवा डिटैच हो जाए। डिटैच स्थिति में देह का भान अथवा अन्य साधनों के प्रति तनिक भी आकर्षण अपनी ओर खींच नही पाता है।

हम अपने आदतों और बुरे संस्कारों से भी स्वतंत्र बने रहे, हमारे मुख से यह शब्द नही निकलना है कि हमारे पास अभी भी व्यर्थ संकल्प आते हैं और पुराने संस्कार स्वभाव हमें अपने वशीभूत कर लेते हैं। अथवा हम अभी भी छोटे छोट विघ्नों से घबरा जाते हैं। ऐसे यौद्धा केवल नामधारी यौद्धा होते हैं।

कर्म यौद्धा का पहला लक्ष्य है, अनेक संग तोड़ एक संग जोड़ना है यह हमारी पहली प्रतिज्ञा है और पहला लक्षण है। लेकिन हम अभी तक इस प्रतीज्ञा या लक्षण को बोल कर ही प्रकट करते हैं कर्म में नही लाते हैं। अर्थात एक कहते हुए भी अनेक तरफ जुडाव बना कर रखते हैं।

यह ऐसा ही होता है कोई डाक्टर रोगी को बचाने जाए और स्वयं रोगी बन जाए। हमारा कर्तव्य प्रकृति और परिस्थिति को परिवर्तन करने का है लेकिन हम प्रकृति या परिस्थिति के वश में हो जाते हैं। हीरा हाथ में हो किन्तु उसे पत्थर समझ कर उसका मुल्य ना समझना अर्थात महान समझदार होते हैं।

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