समाज पर बदनुमा दाग है दुष्कर्म
आशुतोष चतुर्वेदी
हाथरस की बेटी के साथ दुष्कर्म और फिर उसकी हत्या पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस असंवेदनशील तरीके से कार्रवाई की और मामले को दबाने-ढकाने की कोशिश की, वह दर्शाता है कि हमारे समाज का क्षरण हो गया है. हाथरस की घटना के बाद राजस्थान व मध्य प्रदेश सहित अनेक राज्यों से दुष्कर्म की संगीन घटनाओं की खबरें सामने आयी हैं. सब जगह की कहानी एक-सी है. जैसे ही मामला तूल पकड़ता है, पहले पुलिस प्रशासन घटना के होने से ही इनकार करता है. फिर यह साबित करने की कोशिश होती है कि दुष्कर्म हुआ ही नहीं. हाथरस मामले में तो इंतिहा हो गयी. आधी रात को ही बिना परिवार की सहमति के लड़की का दाह संस्कार कर दिया गया. ऐसी घटनाओं से आम लोगों का पुलिस प्रशासन से भरोसा उठता है. यही वजह है कि लोग अब हर आपराधिक घटना की स्थानीय पुलिस की बजाय सीबीआइ से जांच कराने की मांग करने लगे हैं.
हम अक्सर महिलाओं के प्रति सम्मान की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन वास्तविकता में आदर का यह भाव समाज में समाप्त हो गया है. देश में बच्घ्चियों और महिलाओं के साथ दुष्कर्म, बड़ी संख्या में यौन शोषण और छेड़छाड़ के मामले इस बात की पुष्टि करते हैं कि हमने इस आदर को गंगा में प्रवाहित कर दिया है. दरअसल, यह कानून व्यवस्था का मामला भर नहीं है. यह हमारे समाज की सडऩ का प्रगटीकरण भी है. दुष्कर्म के मामलों को बेहतर ढंग से सुलझाने के लिए भारत में प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस यानी पॉक्सो एक्घ्ट बनाया गया है. पॉक्सो एक्ट के तहत 18 साल से कम उम्र के बच्चों और बच्चियों से दुष्कर्म व यौन शोषण के मामले में सुरक्षा प्रदान की जाती है. इस कानून के तहत आरोपी को सात साल या फिर उम्र कैद की सजा का प्रावधान है.
कहने का आशय यह कि हमारे पास एक मजबूत कानून है, लेकिन बावजूद इसके ऐसी घटनाएं रुक नहीं रहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि दुष्कर्म से पीडि़त महिला स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जो उसने किया ही नहीं होता है. हाथरस की घटना ने महिला सुरक्षा को लेकर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं. यूं कहें कि एक तरह से यह जिम्मेदारी स्वयं महिलाओं पर ही आ गयी है कि उन्हें अपनी सुरक्षा का खुद ख्याल रखना है. जो सूचनाएं सामने आयीं हैं, वे चिंता जगाती हैं. वर्ष 2019 में अब तक दर्ज मामलों के मुताबिक भारत में औसतन रोजाना 87 दुष्कर्म के मामले सामने आ रहे हैं. इस साल के शुरुआती नौ महीनों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के अब तक कुल 4,05, 861 आपराधिक मामले दर्ज हो चुके हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार यह 2018 की तुलना में सात फीसदी अधिक हैं. वर्ष 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,78, 236 मामले दर्ज किये गये थे. वर्ष 2018 में देश में दुष्कर्म के कुल 33,356 मामले दर्ज हुए, जबकि 2017 में यह संख्या 32,559 थी. आंकड़ों से पता चलता है कि केवल महिलाएं ही नहीं, बच्चों के खिलाफ भी अपराध से जुड़े मामलों में बढ़ोतरी हुई है. 2018 से 2019 में बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में 4.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और साल 2019 में कुल 1.48 लाख केस दर्ज हुए हैं. इनमें से 46.6 फीसदी अपहरण और 35.3 फीसदी यौन शोषण से जुड़े हैं. न्याय में देरी, अन्याय है- न्याय के क्षेत्र में अक्सर इस सूत्र वाक्य का प्रयोग होता है.
इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है, किंतु इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो, तो ऐसे न्याय की सार्थकता नहीं रहती है. यह सिद्धांत ही त्वरित न्याय के अधिकार का आधार है. यह सूत्र वाक्य न्यायिक सुधार के समर्थकों का प्रमुख हथियार है. हम देश में दुष्कर्म के मामलों में न्यायिक प्रक्रिया पर नजर डालते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, दुष्कर्म के मामलों में सजा की दर 2018 में उसके पिछले साल के मुकाबले घटी. देश में दुष्कर्म के मामलों में सजा की दर केवल 27.2 फीसदी है. 2017 में सजा की दर 32.2 फीसदी थी. उस वर्ष बलात्कार के 18,099 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई और इनमें से 5,822 मामलों में दोषियों को सजा हुई थी. 2018 में बलात्कार के 1,56,327 मामलों में मुकदमे की सुनवाई हुई.
इनमें से 17,313 मामलों में सुनवाई पूरी हुई और सिर्फ 4,708 मामलों में दोषियों को सजा हुई. ब्यूरो के अनुसार 11,133 मामलों में आरोपी बरी किये गये, जबकि 1,472 मामलों में आरोपियों को आरोप मुक्त किया गया. किसी मामले में आरोप मुक्त तब किया जाता है, जब आरोप तय नहीं किये गये हों. वहीं मामले में आरोपियों को बरी तब किया जाता है, जब मुकदमे की सुनवाई पूरी हो जाती है. सन् 2018 में बलात्कार के 1,38,642 मामले लंबित थे. सबसे गंभीर बात यह है कि 2012 में निर्भया कांड के बाद कानून सख्त किये जाने के बावजूद सजा की दर कम हो रही है. ऐसा माना जा रहा है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में कमियों के कारण ऐसा हो रहा है. बहुचर्चित निर्भया मामले को ही लें.
इस मामले ने पूरे देश की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया था. दिल्ली के वसंत विहार इलाके में 16 दिसंबर, 2012 की रात 23 साल की पैरामेडिकल की छात्रा निर्भया के साथ चलती बस में बहुत ही बर्बर तरीके से सामूहिक दुष्कर्म किया गया था. इस जघन्य घटना के बाद पीडि़ता को बचाने की हर संभव कोशिश की गयी, लेकिन उसकी मौत हो गयी. इस मामले में दिल्ली पुलिस ने बस चालक सहित छह लोगों को गिरफ्तार किया था. उनमें एक नाबालिग था. नाबालिग को तीन साल तक सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया, जबकि एक आरोपी राम सिंह ने जेल में खुदकुशी कर ली थी. फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सितंबर, 2013 में इस मामले में चार आरोपियों पवन, अक्षय, विनय और मुकेश को दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई थी. मार्च, 2014 में हाइकोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखा. फिर मई, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर मुहर लगा दी.
मई, 2017 में देश की सर्वोच्च अदालत ने जिस फैसले की पुष्टि कर दी हो, उसके बावजूद निर्भया के गुनहगारों को फांसी की सजा मार्च, 2020 में मिली. न्यायिक दांव-पेच के कारण यह मामला सात साल तक खिंचा. हर रोज देश के किसी-न-किसी हिस्से से दुष्कर्म की खबरें आती हैं. वर्ष 2012 में निर्भया के साथ दुष्कर्म और हत्या के बाद उत्पन्न आक्रोश के बाद कानून में भारी बदलाव कर उन्हें कड़ा किया गया था, लेकिन लगता है कि सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला है. ये घटनाएं सभ्घ्य समाज को शर्मसार करने वाली हैं. उस पर एक बदनुमा दाग हैं.