मामूली चीजों में श्रद्धा से करें देवताओं की तलाश

स्वामी सुखबोधानंद-
काम छोटा ही क्यों न हो अगर हम उसे पूरी श्रद्धा के साथ करते हैं, उसे पूरा आदर देते हैं तो वह हमारे लिए शांति और आनंद देने वाला बन जाता है। श्रद्धा से बड़ा अंतर पैदा होता है।
हम जो भी काम करें उसमें बहुत प्रेम और बहुत श्रद्धा का भाव होना चाहिए। हम जितने जतन और श्रद्धा के साथ काम करेंगे उस काम का प्रभाव उतना ही व्यापक होगा। चीजों के प्रति, प्रकृति के प्रति और लोगों के प्रति गहरे प्रेम का भाव, गहरे सम्मान और गहरे आदर का भाव होना चाहिए।
इसलिए जब विदेशी भारत आते हैं तो वे चकित रह जाते हैं कि यहां तो हर चीज की पूजा होती है। हम पत्थर की पूजा करते हैं, पेड़ की हम पूजा करते हैं, सांप की भी पूजा करते हैं। हम हर चीज की पूजा करते हैं। यहां ईश्वर हर चीज में देखा गया है। यहां ईश्वर सिर्फ स्वर्ग में नहीं रहता बल्कि वह तो कण-कण में व्याप्त है। वह सभी में है।
वह सितारों में है, पेड़ों में है फूलों और जानवरों तक में है। यह जीवन की व्याप्ति के प्रति आदर की अभिव्यक्ति है। इसलिए जहां भी जीवन है वहां उसके भाव की पूजा की जाती है। जब कोई शिल्पी किसी पत्थर से प्रतिमा बनाता है तो प्रतिमा बन जाने के बाद अगर आप उससे कहेंगे कि अब इस पर पैर रख दो तो वह नहीं रखेगा क्योंकि अब उसने पत्थर के उस खंड को एक रूप दे दिया।
उसमें अपनी आस्था का निवेश कर दिया। यह दृष्टि का भाव है। एक साधारण पत्थर भी प्राण प्रतिष्ठा के बाद ईश्वर बन जाता है। तो यह क्या है? यह श्रद्धा है जो उसे ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित कर देती है। यह आस्था ही है जो चीजों के भाव बदल देती है।
श्रद्धा और आदर का क्या महत्व है, इसके लिए एक सुंदर कथा है। यह जापान की कथा है जहां एक युवा अपने लिए जेन गुरू की तलाश में था। यह कठिन काम था। कठिन इसलिए क्योंकि वहां जैन गुरू किसी खास तरह के कपड़े नहीं पहनते हैं, इसलिए वहां किसी गुरू को तलाशना कठिन काम होता है। वह युवा एक रेस्तरां चलाता था। उसे अपने लिए गुरू नहीं मिल रहा था।
एक दिन उसने देखा एक आदमी उसकी दुकान में आया और उसने चाय का कप मांगा। रेस्तरां वाले युवा ने तुरंत समझ लिया कि यह व्यक्ति उसका गुरू बन सकता है और उसे इसी की तलाश थी। उसने उस व्यक्ति से निवेदन किया कि कृपया मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।
जब उन दोनों के बीच सारी बातचीत हो चुकी तो कुछ लोगों ने आकर रेस्तरां चलाने वाले से पूछा कि तुमने कैसे पहचाना कि यह तुम्हारे गुरू बन सकते हैं। तब उस युवा ने जवाब दिया कि जिस तरह वह यहां आए, जिस तरह उन्होंने चाय मांगी, जिस तरह उन्होंने चाय का प्याला उठाया और जिस तरह चाय पी उसमें श्रद्धा और प्रेम का पुट था।
उन्होंने बहुत सम्मान और आदर के साथ चाय पी और ऐसा लगा मानो वे चाय ही नहीं पी रहे हों बल्कि खुद में उतर रहे हों, इसलिए वही मेरे गुरू होने के योग्य हैं। यह सुंदर कहानी हमें बताती है कि विनम्र और सौम्य व्यक्तियों के तौर-तरीकों से भी बहुत कुछ पता हो जाता है। उनके कामों में आप अलग ही चीजें देखेंगे।
जैन परंपरा में चाय पीने में गहरे अर्थ छुपे हैं। वे चाय पीने की साधारण क्रिया को भी बहुत ही गहरे बोध के साथ करते हैं और इससे पता चलता है कि उनका आदर हृदय के कितने भीतर से आता है। इसमें चाय पीना बहुत महत्वपूर्ण काम इसलिए है क्योंकि जब आप गहरे प्रेम, गहरी भक्ति और गहरे बोध के साथ चाय पीते हैं तो आप ईश्वर के करीब होजाते हैं।
स्वयं के बहुत करीब। अक्सर हम प्यार की ताकत की तरफ ध्यान नहीं देते बल्कि ताकत से प्यार करने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं। श्रद्धा और आदर के साथ आप अगर छोटा भी काम करते हैं तो उसमें भी बड़ा प्रभाव आ जाता है। कुछ लोग खाने को बहुत ही ध्यान से खाते हैं क्योंकि वे उसका पूरा रस और आनंद ग्रहण करते हैं।
अगर भोजन को सम्मान और आदर के साथ ग्रहण किया जाए तो उसका भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अपने भीतर गहरी श्रद्धा और आस्था होने से चीजें अर्थ पाती हैं और उनमें अर्थ पैदा हो जाता है। यह श्रद्धा बड़ा महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है।
इसलिए गीता में कहा गया है कि विद्या ददाति विनय। इसलिए अगर विद्या के साथ विनय नहीं आती है तो समझिए अभी शिक्षा अधूरी है। जिसके पास ज्ञान आता है उसके मन में श्रद्धा पैदा हो ही जाती है। उसके व्यवहार में आदर और प्रेम दिखने लगता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण सूत्र भी है।