सोचे विचारें

कोरोना काल से निपटने में सरकार व विपक्ष की बराबर की जिम्मेदारी है, उसे निभाना आवश्यक है

अशोक भाटिया-

कोरोना ने जो सबसे बड़ा सबक इस देश को सिखाया है वह यह है कि हमारी सार्वजनिक चिकित्सा प्रणाली बहुत कमजोर हालत में है जिसे मजबूत बनाये बिना हम भविष्य की चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते। कोरोना से मुकाबला करने के लिए सरकारी अस्पतालों में केवल 30 प्रतिशत सुविधाएं ही थीं जबकि निजी क्षेत्र में 70 प्रतिशत। इसका मतलब यही निकलता है कि समाज के 70 प्रतिशत से अधिक गरीब व्यक्तियों के लिए सरकारी सुविधाएं ही अन्ततः काम आयीं जबकि 30 प्रतिशत अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग के लिए 70 प्रतिशत निजी सुविधाएं मौजूद थीं। निजी अस्पतालों में मोटी रकम खर्च करके इलाज कराने वाले लोगों का आर्थिक शोषण भी निजी अस्पतालों में इस प्रकार किया गया कि एक मरीज से लाखों रुपए तक की फीस वसूली गई। यह तथ्य राज्यसभा में चर्चा के दौरान सामने आया। दूसरी तरफ हकीकत भी उजागर हुई कि कोरोना को नियन्त्रित करने के लिए ‘लाकडाऊन’ का उपाय अपेक्षानुरूप अवरोधक साबित नहीं हो पाया। तीसरा सबसे बड़ा तथ्य यह उजागर हुआ कि राज्य सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर इसे नियन्त्रित करने के लिए उपाय खोजे।

भारत का संघीय ढांचा इतना मजबूत है कि राज्य सरकारें आपस में संकट काल के दौरान सहयोग करके उसे समाप्त करने के सफल उपाय करती रही हैं। कोरोना की वजह से केन्द्र-राज्य सम्बन्ध भी एक मुद्दे के रूप में उभर कर आये खास कर इस संक्रमण के देश व्यापी लाकडाऊन की वजह से अर्थव्यवस्था जिस तरह पटरी से उतरी उससे राज्यों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई और इनमें से कुछ के पास तो अपने कर्मचारियों को वेतन तक देने के पैसे नहीं रहे। ऐसी राज्य सरकारों में भाजपा शासित राज्य सरकारें भी थीं और गैर भाजपाई सरकारें भी। वर्तमान में जीएसटी मुआवजा राशि को लेकर राज्य सरकारें जिस तरह केन्द्र से गुहार लगा रही हैं यह इसी का प्रमाण माना जा सकता है, परन्तु इस मुद्दे पर केन्द्र व राज्यों के टकराव को टालना इसलिए आवश्यक है कि यह प्रश्न समूची राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है जो स्वयं में बहुत दबाव में हैं इसके कारण जिस तरह रोजगारों की हानि हुई है वह भारत जैसे तेजी से विकास करते देश के लिए शुभ संकेत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि संसद इस गंभीर विषय पर केवल बहस या चर्चा करके ही चुप न हो जाये बल्कि संकट से उबरने का सर्वमान्य हल भी खोजे।

बेशक विपक्ष असफलता के लिए सरकार पर आरोप लगा सकता है मगर हकीकत यही रहेगी कि कोरोना संक्रमण एक दैवीय आपदा के रूप में ही देखी जायेगी। अतः बहुत जरूरी है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष के विद्वान सांसद बैठ कर इस संकट पर पार पाने के उपाय खोजें। लोकतन्त्र में चर्चा और बहुविचारों के समन्वय का बहुत महत्व होता है। संसद का मुख्य कार्य भी यही होता है अतः यह देखा जाना जरूरी है कि कोरोना ने देश के गरीब वर्ग के जीवन को किस हद तक प्रभावित किया है और यह भी जानना बहुत जरूरी है कि इस संक्रमण की वजह से पूरे देश में मची उथल-पुथल ने कितने प्रवासी श्रमिकों को निगला क्योंकि जो लोग मरे हैं वे इसी देश के विकास व निर्माण कार्यों में व्यस्त थे। उनका जीवन किसी सम्पन्न व्यक्ति के जीवन से कम करके नहीं देखा जा सकता। हमें हमेशा यह ध्यान रखना होगा कि भारत के विकास में मजदूरों और उनके श्रम का विशेष महत्व रहा है। आजकल के सन्दर्भों में शहरी सम्पन्न जीवन को सुविधापूर्ण व सुखमय बनाने की कुंज्जी इन्हीं नवोदित कारीगरों व श्रमिकों के हाथ में होती है अतः उनका जीवन भी हमारे लिए कम मूल्यवान नहीं है। सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन लोगों के जख्मों पर मरहम लगाये जिन्हें कोरोना ने बर्बाद कर डाला है। यह बर्बादी कई आयामों में हुई है। इसका सबसे बड़ा आयाम काम-धंधों का चौपट हो जाना और आम आदमी की क्रय क्षमता न्यूनतम हो जाना है। इसमें सुधार करने के लिए सांसदों के माध्यम से ही ऐसे सुझाव आना चाहिए। कोरोना काल से निपटने में सरकार व विपक्ष की बराबर की जिम्मेदारी है। यह ईमानदारी सत्ता व विपक्ष दोनों के ही तरफ के सांसदों को दिखानी होगी क्योंकि दोनों ही पक्षों के सांसद आम जनता के वोटों से चुन कर आते हैं।

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