60 हजार बिलियन टन ग्लेशियर पिघल चुका है
हिमायल क्षेत्र के ग्लेशियर पर पड़ रहा है। ग्लेशियर का तापमान बढ़ने से बर्फबारी के दौरान पड़ने वाली बर्फ चिपक नहीं पा रही है। चमोली में हुए हादसे के पीछे ग्लेशियर का बढ़ता तापमान बड़ा कारण है। अगले तीन-चार वर्षों में इस तरह की घटना पुनरावृत्ति होने से इंकार नहीं किया जा सकता है।
यह कहना है कि वरिष्ठ पर्यावरण वैज्ञानिक व स्कूल ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज के महानिदेशक तकनीकी डॉ. भरत राज सिंह का। उन्होंने बताया कि वर्ष 2007 में धरती का औसत तापमान 1.58 डिग्री था। जो बढ़कर अब 3 डिग्री से अधिक हो चुका है। साइबेरिया जैसा देश जहां धूप नहीं होती है। वहां पर धरती का तापमान छह डिग्री बढ़ चुका है। उन्होंने कहा कि हिमालय के बेल्ट में कई छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। छोटे ग्लेशियर तो कुछ वर्षों में स्वत: समाप्त हो जाएंगे। बड़े ग्लेशियर का टूट कर गिरना जारी रहेगा। क्योंकि तापमान में वृद्धि होने से ग्लेशियर में दरारें आ गई हैं। ग्लेशियर का निचला हिस्सा जैसे पिघलेगा, ऊपरी हिस्सों में दरारें होने के कारण टूटने की संभवना बढ़ जाएगी। चमोली में यही हुआ है।
नहीं चिपक रही नई बर्फ
डॉ. भरत राज सिंह ने कहा कि माइनस 30 से माइनस 40 डिग्री पर बर्फबारी होती है। लेकिन ग्लेशयर का तापमान इससे अधिक हो चुका है। इससे नई बर्फ ठीक से चिपक नहीं पा रही है। वाष्पीकरण भी तेजी से हो रहा है। बर्फीले तूफान की घटना भी इसी कारण बढ़ गई है। उत्तराखंड अथवा अन्य पहाड़ी इलाको में जहां ग्लेशियर अधिक हैं, बारिश के मौसम शुरू होने अथवा बर्फवारी अधिक पड़ने पर सचेत होना पड़ेगा। विभीषिका के बचाव की तैयारी पहले करनी होगी।
60 हजार बिलियन टन ग्लेशियर पिघल चुका है
डॉ. भरतराज सिंह ने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब तक लगभग 60 हजार बिलियन टन बर्फ पिघल चुकी है। आर्कटिक में बर्फीले समुद्र का ग्लेशियर वर्ष 2012 तक 30 प्रतिशत पिघल गया था। अब लगभग 60 प्रतिशत पिघला हुआ पाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि तापमान बढ़ने से बर्फ का क्षेत्रफल भी बढ़ रहा है। इससे बर्फ के गलने में भी तेजी आ रही है। इसमें अभी और तेजी आने की संभवना है। इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा। समुद्र के किनारे बसे राष्ट्रों पर बड़ा खतरा है। इसका खुलासा उन्होंने अपनी पुस्तक क्लाइमेंट चेंज में भी किया है। उनकी पुस्तक के कुछ अंश अमेरिका के हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है।