सोचे विचारें

2020 जो पीछे छोड़ चला है

(शशि शेखर) 

सन 2020 को अड़ियल आग्रहों, असंतोष, अलगाव और अजूबी आशंकाओं के वर्ष के तौर पर जाना जाएगा। आप चाहें, तो सारा दोष कोरोना महामारी पर डालकर कुछ देर के लिए आंखें मूंद सकते हैं, पर सच यह है कि क्षरण की यह प्रक्रिया पहले से जारी थी, कोरोना ने तो बस इसे गति प्रदान कर दी।
पिछले एक दशक से राष्ट्रवादियों का समूची दुनिया में उदय हो रहा था। एक-एक कर तमाम देशों में राष्ट्र और परंपरा का हवाला देते हुए ऐसे लोग सत्तानशीं होते गए, जिन्होंने प्रचलित सत्ता-मानकों को बुरी तरह तोड़ा-मरोड़ा। यही वजह है कि फ्रांस और अमेरिका जैसे देशों में वह सब हुआ, जिसे वे ‘असभ्य और जाहिल’ देशों की समस्या मानते थे। कमाल यह है कि एक तरफ जहां धार्मिक और नस्लीय टकराव बढ़ते हुए देखे गए, वहीं कुछ ऐसे समीकरण भी पनपे, जिनकी इस साल की शुरुआत तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। भला कौन सोच सकता था कि इजरायल के प्रधानमंत्री सऊदी अरब का दौरा करेंगे और उससे पहले कुछ कट्टर इस्लामी देश यहूदियों के इस इकलौते राष्ट्र को मान्यता दे चुके होंगे? कौन सोच सकता था कि एक जाते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के इशारे पर मोसाद के एजेंट ईरान की परमाणविक क्षमता पर हमला करेंगे और परमाणु कार्यक्रम के अगुवा ब्रिगेडियर को उसके ही शहर में मार गिराएंगे? इससे पहले अमेरिकी ड्रोन ईरान में जांबाज के तौर पर मशहूर कासिम सुलेमानी को मार चुके थे। इजरायल और सऊदी अरब का तालमेल अगर नए समीकरण पैदा करता है, तो चोट खाया ईरान और टकराववादी तुर्की दूसरी तरह की सिहरनें पैदा करते हैं।

डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई वाले अमेरिका ने सिर्फ परदेश के मामलों में तमाम उलट-फेर नहीं किए, बल्कि ट्रंप साहब ने संसार के सबसे ताकतवर लोकतंत्र की तमाम मर्यादाओं की चूलें भी हिला दीं। वह चुनाव हार गए थे, पर पराजय मानने को तैयार न थे। गनीमत यह है कि इस महादेश में अभी भी संस्थाएं मजबूत हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट, सेना, स्पेशल सर्विस और खुद उनकी पार्टी के आला नेताओं ने ट्रंप की नहीं मानी। उनका वश चलता, तो वह रूस के व्लादिमिर पुतिन अथवा चीन के शी जिनपिंग की तरह अपनी लंबी सत्तानसीनी का इंतजाम कर लेते। जो बाइडन 2021 की शुरुआत में जब व्हाइट हाउस में दाखिल होंगे, तब तमाम विकराल समस्याएं उनका मुंह बाए इंतजार कर रही होंगी।
ट्रंप की अजूबी अगुवाई में अमेरिका ने खुद को उन देशों की श्रेणी में खड़ा कर लिया, जो सिर्फ अपने बारे में सोचते रहे हैं। कोरोना फैलने के बाद अमेरिका ने न सिर्फ विश्व स्वास्थ्य संगठन की इमदाद बंद की, बल्कि इस महामारी से निपटने में भी तमाम तरह की गलतियां कीं। इससे पहले अमेरिका खुद-ब-खुद ऐसी विपदाओं के वक्त विश्व नेता की भूमिका निभाता था। यही वजह है कि 2020 ने हमें महात्मा गांधी या नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं की खूब याद दिलाई, जो समूची धरती के मानवों के मन में भरोसा कायम रखने की क्षमता रखते थे। एक तरफ, ऐसे महामानवों का अभाव और दूसरी तरफ, संकुचित राष्ट्रीयताओं का उदय नए भय जगाने वाला साबित हो रहा है।

यहां मैं यूरोप का उदाहरण देना चाहूंगा। कुछ समय पहले तक यूरोपीय देश एक-दूसरे की मदद करते थे, पर इस बार इंग्लैंड को फ्रांस से, फ्रांस को जर्मनी से, जर्मनी को इटली से और इटली को अपने जैसे किसी अन्य देश से मतलब नहीं था। सबने अपनी सीमाएं बंद कर लीं और अपने संसाधनों को खुद तक महदूद रखा। अन्य महाद्वीपों के देशों में भी यही चलन देखने को मिला। इससे न केवल ‘ग्लोबल विलेज’ के सपने को नुकसान पहुंचा, बल्कि कोरोना की वजह से ऐसे तमाम एप अनिवार्य कर दिए गए, जो लोगों की निजी जिंदगी में गहरा दखल रखते थे। लोकतांत्रिक देशों में तो तब भी गनीमत है, पर इन सूचनाओं का उपयोग अधिनायकवादी मुल्कों में जन-दमन के लिए किया जा सकता है। यही नहीं, यदि यह डाटा सिर्फ लाभ के लिए काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ लग जाए, तो इससे अनर्थ के खतरनाक बबूल बोए जा सकते हैं।
वैसे भी कोरोना और उसके लिए आनन-फानन में अविष्कृत टीकों को लेकर तमाम तरह की षड्यंत्र-कथाएं आसपास तिर रही हैं। इन्हीं के आधार पर बहुत से विद्वान यह कहते हैं कि पिछली महामारी तो सौ साल पहले आई थी, पर अब हर दशक की अपनी महामारी संभव है। हालांकि, ऐसे लोगों के पास अपने तर्कों को प्रमाणित करने का कोई सुबूत नहीं है, पर आशंकाओं के जो अलाव 2020 अपने पीछे छोडे़ जा रहा है, उसके शोले लंबे समय तक प्रज्ज्वलित रह सकते हैं।

अब भारत पर आते हैं। शाहीन बाग आंदोलन के चलते वर्ष 2020 अप्रिय सुरों के साथ अवतरित हुआ था। साल के दूसरे ही महीने में दिल्ली में शर्मनाक दंगे हुए और जब तक उनका दंश खत्म होता, किसान आंदोलित हो उठे। इस समय भी दिल्ली के दर पर हजारों किसान आंदोलनरत हैं। हर रोज अपने ही कीर्तिमान तोड़ती सर्दी उनके निश्चय को नहीं तोड़ सकी है। सरकार और इन किसानों के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। यह ऐसा आंदोलन है, जो देखने में एक विशिष्ट भूगोल का प्रतीत होता है, पर इसका अंतरराष्ट्रीय प्रभाव भी पड़ रहा है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि पंजाब लंबे समय तक आतंक के अलाव में भूना जाता रहा है। हमें किसी भी हाल में पड़ोसियों को अपने यहां की चिनगारियों को हवा देने का अवसर नहीं मुहैया कराना है।
इसकी वजह साफ है। चीन की लाल सेना तो पहले से ही हमारी सीमाओं को अशांत किए हुए है। जंग के शोले उगलते दिनों को छोड़ दें, तो यह पहला मौका है, जब एक कमांडिंग ऑफिसर सहित 20 जवान मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। इस दौरान पाकिस्तान ने भी तमाम बार अपनी हद लांघने की कोशिश की, जिससे यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि कभी हमें चीन और पाकिस्तान, दोनों से एक साथ जूझना पड़ा तब? इस सवाल को नेपाल का कसैला रवैया और जटिल बनाता रहा। अनादि काल से हम भारतीय अपनी सरहदों की सुरक्षा के सटीक इंतजाम में नाकाम रहे हैं। क्या नया साल इस ऐतिहासिक धब्बे को मिटाने वाला वर्ष साबित होगा?

इस दौरान अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की शांतिपूर्ण माहौल में शुरुआत ऐतिहासिक रही। इस मुद्दे पर मैं पहले काफी लिख चुका हूं और इतने कम शब्दों में पूरे साल की घटनाओं को समेटना भी संभव नहीं है, इसलिए समूचा ध्यान उन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर लगाया गया है, जिनके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
इंसानियत का लंबा इतिहास गवाह है कि लड़खड़ाहटों के प्रत्येक दौर में कुछ नए मानवीय मूल्य आकार लेते हैं। मसलन, बड़बोले सत्तानायकों के इस दौर में न्यूजीलैंड, जर्मनी या ताइवान जैसे देशों की महिला शासनाध्यक्ष ज्यादा जनहितकारी साबित हुईं। उम्मीद है, 2021 अपने साथ इस तरह के कुछ और दम-दिलासे लेकर आएगा। इसी शुभकामना के साथ आप सबको नए साल की बधाई!

Show More

यह भी जरुर पढ़ें !

Back to top button