सामुदायिक फूट सत्ता के लिये लाभप्रद हो सकती है राष्ट्रीय एकता के लिये नहीं
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-निर्मल रानी-
अंग्रेज़ों की ‘बांटो और राज करो ‘ की विश्वव्यापी नीति से सारा संसार परिचित है। हिटलर ने भी जर्मनी में सत्ता पर एकाधिकार स्थापित करने के लिये समाज को धर्म के आधार पर विभाजित करने का यही काम किया था। हालांकि दुनिया के शांतिप्रिय व प्रगतिशील विचारधारा के लोग मात्र सत्ता पर क़ाबिज़ रहने के उद्देश्य से अपनाई जाने वाली ‘बांटो और राज करो ‘ की नीति से सहमत नहीं हैं परन्तु चतुर राजनीतिज्ञ आज भी सत्ता हासिल करने या सत्ता में बने रहने के लिये इसी विभाजनकारी नीति का अनुसरण करते आ रहे हैं। अफ़सोस तो इस बात का है कि राजनीतिज्ञों की इस कुत्सित मंशा को अमली जामा पहनाने में हमारे देश की कार्यपालिका का एक वर्ग तथा गोदी मीडिया कहा जाने वाला मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमणियम स्वामी सहित अनेक नेताओं व गोदी मीडिया से जुड़े कई लोगों के इस आशय के विभिन्न वीडिओ वॉयरल हो चुके हैं जिसमें मुसलमानों में दरार डालने के लिये शिया-सुन्नी व देवबंदी -बरेलवी आदि वर्गों के बीच नफ़रत फैलाने व इन समुदायों के मध्य खाई और गहरी करने जैसे प्रयासों को अमल में लाने जैसी बातें करते सुना जा सकता है। संसद में तीन तलाक़ संबंधी क़ानून लाने के पीछे भी सरकार की मंशा मुस्लिम महिलाओं की चिंता कम अपितु मुस्लिम महिलाओं को अपने पक्ष में संगठित करने का प्रयास अधिक थी।
इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में आगामी मुहर्रम के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक मुकुल गोयल द्वारा जारी उत्तर प्रदेश के समस्त पुलिस आयुक्तों को जारी दिशा निर्देश भी सत्ता की इसी ‘बांटो और राज करो ‘की नीति का एक हिस्सा प्रतीत होते हैं। गत 31 जुलाई को पुलिस महानिदेशक कार्यालय से गोपनीय /अतिआवश्यक श्रेणी के तहत संख्या -डी जी -आठ-77(23)-2021 पत्रांक से प्रदेश के समस्त पुलिस आयुक्त ,वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक तथा पुलिस अधीक्षक को संबोधित करते हुए एक 13 सूत्रीय निर्देशावली जारी की गयी है। आश्चर्य यह है कि गोपनीय /अतिआवश्यक श्रेणी का पुलिस दस्तावेज़ होने के बावजूद यह पत्र सार्वजनिक व वायरल कैसे हो गया। इस निर्देशावली के निर्देश संख्या 2 व 3 में उल्लिखित बातें ऐसी हैं जिनका न तो मुहर्रम से कोई संबंध है न ही यह बातें सत्य व तर्क आधारित हैं बल्कि निष्पक्ष नज़र से देखने से यह साफ़ पता चलता है कि यह शब्दावली पूर्वाग्रह से प्रेरित तथा मुहर्रम जैसे शोकपूर्ण अवसर को बदनाम करने के उद्देश्य से जानबूझकर लिखी गयी हैं।
उदाहरण के तौर पर इसके निर्देश संख्या 2 में उल्लिखित है कि मुहर्रम के अवसर पर शिया समुदाय के लोगों द्वारा तबर्रा पढ़े जाने पर सुन्नी समुदाय (देवबंदी व अहले हदीस ) द्वारा कड़ी आपत्ति व्यक्त की जाती है। शिया वर्ग के असामाजिक तत्वों द्वारा सार्वजनिक स्थानों,पतंगों व आवारा पशुओं पर तबर्रा लिखे जाने तथा देवबंदी व अहले हदीस वर्गों के असमाजिक तत्वों द्वारा इन्हीं तरीक़ों से अपने ख़लीफ़ाओं के नाम लिखकर प्रदर्शित करने पर इन दोनों फ़िरक़ों के मध्य व्याप्त कटुता के कारण विवाद संभावित रहता है। जबकि निर्देश संख्या 3 में लिखा गया है कि मुहर्रम मुस्लिम समुदाय के शिया एवं बहुसंख्यक परंपरागत सुन्नी मुस्लिमों (सूफ़ी /बरेलवी /हनफ़ी आदि ) द्वारा व्यक्त किये जाने वाले शोक व ताज़ियादारी का कट्टरपंथी विचारधारा वाले देवबंदी /अहले हदीस मत के सुन्नियों द्वारा कड़ा विरोध किये जाने तथा कटुता व मतभेदों के कारण अतिसंवेदनशील अवसर है। इस दिशा निर्देश में प्रयुक्त शब्दावली का कई शिया सुन्नी व हिन्दू धर्मगुरुओं ने भी विरोध किया है। मुहर्रम के संबंध में इस तरह की शब्दावली व विचारों का प्रयोग वही कर सकता है जो या तो करबला की घटना व हज़रत इमाम हुसैन व उनके 72 साथियों की शहादत के मर्म से अनभिज्ञ हो या फिर जानबूझकर इस पवित्र अवसर को बदनाम करने की साज़िश रच रहा हो।
तबर्रा शब्द का अर्थ प्रायः हज़रत मुहम्मद के साथियों (सहाबा ) के प्रति अपमान जनक भाषा का प्रयोग करने से लगाया जाता है। जबकि मुहर्रम में शहीद ए करबला हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिजनों व साथियों के बेरहमी से 3 दिन की भूख व प्यास की हालत में किये गए क़त्ल का ज़िक्र किया जाता है और ज़ालिम यज़ीद व उसकी सेना द्वारा ढाए गए ज़ुल्म का वर्णन किया जाता है। भारत सहित पूरी दुनिया में इस अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन की याद में करोड़ों लोगों को मुफ़्त लंगर वितरित किया जाता है तथा लाखों यूनिट रक्तदान किया जाता है। संभव है कि यज़ीदी विचारधारा का अनुसरण करने वाले कुछ लोगों या किसी वर्ग को हज़रत हुसैन का शोक मनाना रास न आता हो। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इतिहास 1400 वर्ष पूर्व ज़ुल्म व अत्याचार के विरुद्ध दी गयी हज़रत हुसैन की ऐतिहासिक क़ुरबानी को फ़रामोश कर दे ? रहा सवाल देवबंदियों के मुहर्रम के विरोध करने का तो यह भी मनगढ़ंत बात है। कोई भी मुस्लिम वर्ग मुहर्रम व हज़रत हुसैन की शहादत शोकपूर्ण तरीक़े से मनाए जाने का विरोध नहीं करता।
हाँ यह ज़रूर सच है कि मुहर्रम ही नहीं बल्कि,शब् बरात,होली,दीवाली,कांवड़ यात्रा सहित अनेक त्योहारों के अवसर पर प्रत्येक समुदायों में सक्रिय असमाजिक तत्व इन पवित्र अवसरों को अपने किसी न किसी कुकृत्यों द्वारा बदनाम करने की कोशिश ज़रूर करते हैं। परन्तु उनके यह कुकृत्य इन त्योहारों या इनकी मूल भवनाओं के मर्म को प्रभावित नहीं कर सकते। उदाहरणतयः होली का हुड़दंग होलिका दहन के पवन मर्म पर हावी नहीं हो सकता न ही इसके चलते होली मनाने से रोका जा सकता है। दीपावली में चाहे जितना जुआ खेला जाता हो परन्तु लक्ष्मी पूजन का महत्व इस ग़ैरक़ानूनी व अनैतिक कार्य से कम नहीं हो जाता न ही दीपावली को जुए का त्यौहार कहा जा सकता है। अनेक कांवड़ियों द्वारा लगभग प्रत्येक वर्ष जगह जगह हुड़दंग की जाती है परन्तु इसका दोष प्रत्येक धर्मावलंबी कांवड़ यात्री पर नहीं मढ़ा जा सकता। और अब तो रावण दहन का भी मुखर विरोध किया जाने लगा है। क्या इस आधार पर विजयदशमी को रावण दहन की प्रथा बंद की जा सकती है ?
इसी प्रकार मुहर्रम को तबर्रा पढ़ने या फ़साद फैलाने वाला त्यौहार बताना और दशकों पुरानी चंद असभ्य घटनाओं को आज की निर्देशावली में याद करना साफ़ ज़ाहिर करता है कि यह सत्ता के इशारे पर या सत्ता को ख़ुश करने के लिए की गयी एक कोशीश के सिवा और कुछ नहीं। किसी भी धार्मिक सरकारी निर्देशावली में प्रयुक्त शब्द संबद्ध धर्मों की मान मर्यादा व सम्मान के अनुरूप होने चाहिए। परन्तु अफ़सोस कि उत्तर प्रदेश में मुहर्रम संबंधी जारी दिशा निर्देश सामुदायिक फूट व सत्ता के लिये तो लाभप्रद प्रतीत होते हैं परन्तु इस तरह देश के दिशा निर्देश राष्ट्रीय एकता के लिये तो क़तई मुनासिब नहीं।