राजनीति में अपराधीकरण की समस्या बढ़ने के कारण क्या हैं?
एडीआर के मुताबिक 2009 से 2019 के लोकसभा चुनाव तक आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 44 प्रतिशत और गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 109 प्रतिशत बढ़ी है। यही हाल विधायकों के संदर्भ में भी देखने को मिलता है। लोक प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के प्रविधानों, सर्वोच्च न्यायालय के समय-समय पर आए महत्वपूर्ण आदेशों, विभिन्न आयोगों के सुझाव व चुनाव आयोग के उठाए गए विभिन्न कदमों के बावजूद राजनीति के अपराधीकरण का विस्तारित होना चिंता का विषय है।
बीते कुछ वषों में हुए विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों में चुनाव आयोग के कई दिशानिर्देशों का खुलेआम उल्लंघन किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों की अवमानना के लिए नौ राजनीतिक दलों पर जुर्माना भी लगाया। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के खंड आठ में उन अपराधों का वर्णन है, जिसके तहत सांसदों एवं विधायकों को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
अलीगढ़ के खैर से विधान सभा चुनाव में बसपा प्रत्याशी का मामला;
गंभीर अपराध सिद्ध उम्मीदवारों को प्रतिबंधित करने की मांग वाली 2020 से लंबित याचिका पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के तैयार हो जाने के फैसले ने भी राजनीति के अपराधीकरण की मृतप्राय बहस को फिर से जीवन दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका ने आरोप सिद्ध नेताओं को प्रतिबंधित करने के मुद्दे को समानता के अधिकार के साथ जोड़कर नई बहस शुरू की है तो यह डर भी उठ खड़ा हुआ है कि ऐसे सख्त कानून का दुरुपयोग न होने लगे। यह सवाल भी उठता है कि धरना-प्रदर्शन करने या सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाने वालों को दोषी माना जाए या नहीं? एक मतदाता के लिए यह जानना मुश्किल है कि ऐसे प्रत्याशी ने जनहित में कानून की सीमा पार की या अपराध की मंशा से।
आमतौर पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी तमाम हथकंडों के दम पर इन मुकदमों का फैसला लटकाने में सफल हो जाते हैं। इससे दोष सिद्धि में बहुत देरी हो जाती है या बहुत कम लोगों का अपराध सिद्ध हो पाता है। उधर, मतदाता के लिए आपराधिक प्रवृत्ति के प्रत्याशी और मामूली धरना-प्रदर्शन या जनहित में सरकारी कामकाज प्रभावित करने के आरोपित उम्मीदवार में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। यह दिखाता है कि न्याय प्रक्रिया को दुरुस्त और तेज करने की जरूरत है।