मंदी की मार से माध्यम वर्ग बेजान

प्रेम शर्मा
पिछले लम्बे अरसे दुनिया भर को मंदी की मार झेलनी पड़ रही है और भारत भी इसकी चपेट में है। न ही मंदी के बादल छंटते दिखे हैं और न ही निकट भविष्य में इसकी संभावना दिख रही है। इसी मंदी के चलते माध्यय वर्गी भारतीयों की जीवन-शैली बेजान सी नजर आ रही है। नोटबंदी के बाद कोरोना के कहर में लम्बे लाकडाउन ने बेरोजगारी के दौर को दो गुना कर दिया है। तमाम संस्थानों में आधी अधूरे वेतन के चलते माध्यम वर्ग का हाल बे हाल है। ऐसे में बदले हुए दौर और कमी-बेशी के दिनों की वापसी पर ही शायर कृष्ण बिहारी‘‘ नूर‘‘ का शेर याद आता है। जिन्दगी की तल्खियां अब कौन सी मंजिल में हैं,इसी से अंदाजा लगा लो जहर महंगा हो गया!पढ़-लिख कर एक इज्जतदार नौकरी हासिल करने का सपना होता है लेकिन नौकरी न मिलने और आर्थिक मंदी ने हजारों लोगों की उड़ान पर रोक लगा दी। तमाम नौकरी पेशा लोग अब चर्चा करते मिल जाएगे कि ‘‘हमने प्लान किया था कि हमारी इन्क्रीमेंट होगी, तो मैं एक फार्मूला ले कर चल रहा थे और इस फार्मूला के चलते हमें दो बड़े फैसले लिए थे। एक तो शहर में घर होने का खघ््वाब था और मैं उसके लिए अपनी इन्क्रीमेंट को देखते हुए प्लानिंग भी कर रहा थे।
कुछ लोग सोच रहे थे कि अगली गाड़ी एक लक्जरी कार तो नहीं, पर हाँ एक मंहगी गाड़ी जरूर लूँगा। लेकिन जिन्दगी और करियर के ये दो बड़े प्लान इस मंदी के चलते पूरे न हो सके।’तमाम ऐसे मध्यम वर्गीय भारतीय हैं जिन्हें अपनी आमदनी और खर्चे के अनुपात को तराजू में तौलना पड़ रहा है। वजह आर्थिक मंदी ही है। पिछले एक दशक से भारत की अर्थव्यवस्था ने बेपनाह तरक्की की और भारतीय मध्यम वर्ग की आमदनी बढ़ी और जाहिर है खर्च भी उसी अनुपात में बढ़े।मंदी के असर पर लखनऊ में पांच लोगों एक मध्यम वर्गीय परिवार की श्रीमती रीता कहती हैं, ‘‘सीमित आय में घर चलाना एक बहुत बड़ी चुनौती हो गयी है। एक तो मंदी की मार और दूसरा महँगा होते फल, अनाज और खाने-पीने की चीजें. मुझे तो लग रहा है की ये चीजें आम-आदमी की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं। आप ही सोचिये, घर की आय बढे बिना अगर दाल ही अस्सी-नब्बे रूपये किलो बिकेगी तो क्या होगा। पहले सौ रूपये को नोट मिनटों में खर्च होता था और अब वही हाल पांच सौ के नोट को हो गया है।’’ नतीजा यही हुआ है कि जिस गति से लोग खर्च कर रहे थे वो अब नहीं कर रहे और बचत पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।
क्रेडिट कार्ड्स के बदले आम आदमी एक बीमा लेने को ज्यादा आतुर दिख रहा है क्योंकि उसे शायद इस बात का यकीन हो गया है की मंदी के दौर में उतार चदाव की मार कभी भी पड़ सकती है। ऐसे में यह कहने में कोई गुरेज नही कि मोदी है तो मुमकिन है, यह जुमला मोदी सरकार में बार-बार सच हो रहा है, फिलहाल तो नकारात्मक अर्थों में देश की अर्थव्यवस्था नजर आ रही है। ताजा उदाहरण देश की अर्थव्यवस्था का है जिसमें लगातार गिरावट देखी जा रही थी और आरबीआई समेत देश-विदेश की तमाम वित्तीय संस्थाएं, अर्थशास्त्री इस बात की चेतावनी दे रहे थे कि देश के विकास में तेजी से गिरावट आएगी। भारत में फिलहाल जिस मंदी का खतरा लंबे समय से जतलाया जा रहा था, वो अब भारतीय अर्थव्यवस्था की हकीकत बन गई है। भारत में पहली बार तकनीकी रूप से आर्थिक मंदी आ गयी है। यह ऐलान मोदी सरकार के विरोधियों या विपक्षी दलों का नहीं है, बल्कि आरबीआई की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है। गौरतलब है कि जब लगातार दो तिमाही में अर्थव्यवस्था सिकुड़ती है यानी विकास दर नेगेटिव रहती है तो तकनीकी तौर पर उसे आर्थिक मंदी कहा जाने लगता है। और आरबीआई की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि जुलाई से सितंबर की दूसरी तिमाही में भी जीडीपी का घटना जारी रहा और यह 8.6 प्रतिशत तक गिर गई।
रिपोर्ट के आधार पर अर्थशास्त्रियों ने कई संकेतकों को देखा, जिनमें कंपनियों द्वारा अपने खर्चों को कम करना, बिक्री का गिरना, गाड़ियों की बिक्री, आम लोगों का बैंक खातों में ज्यादा पैसे डालना इत्यादि जैसी गतिविधियां शामिल हैं। बीते दिवस आई रिपोट के मुताबिक लॉकडाउन के कारण पूरी तरह से बंद हो गई आर्थिक गतिविधियां जब फिर से शुरू हुईं तो उद्योग क्षेत्र के हालात कुछ सुधरे लेकिन सेवा क्षेत्र उस तरह का प्रदर्शन नहीं दिखा पाया। खुदरा व्यापार, यातायात, होटल, रेस्त्रां जैसे क्षेत्र जिनमें लोगों के बीच संपर्क ज्यादा होता है, उन्होंने अभी भी रफ्तार नहीं पकड़ी है। हालांकि हालात धीरे-धीरे सुधर रहे हैं और अगर यह सुधार जारी रहा तो अक्टूबर से दिसंबर की तिमाही में जीडीपी में वृद्धि देखने को मिल सकती है। लेकिन दुनिया में कोरोनावायरस के संक्रमण की दूसरी लहर के आने की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी वृद्धि की संभावनाओं को धक्का लगा है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। आरबीआई की रिपोर्ट में भारत में चिंता का एक बड़ा विषय ये बताया गया है कि घरों और कंपनियों दोनों पर आर्थिक दबाव बढ़ रहा है और यह दबाव वित्तीय क्षेत्र पर भी असर डाल सकता है। करोड़ों लोगों की नौकरी जाने से लोगों ने खर्च कम कर दिए हैं और पैसों को बचाने पर ज्यादा ध्यान लगाना शुरू कर दिया है।बैंकों के बचत खातों में जमा राशि में वृद्धि इस बात का प्रमाण है। जब लोग पैसे खर्च नहीं करेंगे, तो बाजार में पूंजी का प्रवाह घटेगा और अर्थव्यवस्था की रफ्तार में बाधा होगी। फिर भी प्रधानमंत्री मोदी, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और सरकार को सलाह देने वाले अर्थशास्त्री इस सच्चाई से न जाने क्यों आंखें मूंदे हुए हैं और आत्मनिर्भर भारत अभियान को खरा साबित करने में लगे हैं।
कुछ दिनों पहले एक वैश्विक सम्मेलन में मोदीजी ने आत्मनिर्भर अभियान को महज परिकल्पना न बताते हुए सुनियोजित आर्थिक रणनीति बताया था। उन्होंने कहा था कि इस रणनीति में भारतीय कारोबार की क्षमता और भारत को वैश्विक विनिर्माण का प्रमुख केन्द्र बनाने में दक्ष श्रमिकों के कौशल का समावेश है। इस तरह की बातें सुनकर लगता है कि भारत कितनी तरक्की कर रहा है और जल्द ही आर्थिक विकास में आसमान जैसी ऊंचाइयों को छू लेगा। लेकिन बाजार में पचास रुपए किलो बिकते आलू-70 रूपये किला के प्याज ने इस खयाली पुलाव का स्वाद बेकार कर देते हैं। बीते सालों में मोदी सरकार के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था ने कोई कमाल नहीं किया। नोटबंदी और जीएसटी के कारण आम आदमी, छोटे कारोबारियों की कमर टूट गई और बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई। देश की सार्वजनिक संपत्ति का तेजी से निजीकरण हुआ। अब तो आम आदमी के टैक्स से बने एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन भी चंद औद्योगिक घरानों की संपत्ति बन गए हैं। जिसमें अब तथाकथित विश्व स्तरीय दी जाने वाली सुविधाओं के लिए अच्छी-खासी रकम जनता से ली जाएगी। यानी अपने ही धन से बनी संपत्ति का उपभोग करने के लिए जनता अपनी जेब ढीली करेगी और कुछ उद्योगपतियों की निजी संपत्ति में इजाफा होगा। इस तरह के विकास को पूरे देश का विकास तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन मोदी सरकार अब भी आत्मनिर्भर भारत का ढिंढोरा पीट रही है। इसके तीसरे चरण के तहत आज वित्त मंत्री ने नए ऐलान किए हैं। जिसमें रोजगार पर फोकस है।फिलहाल हालात उलट हैं। देश घिसटते-घिसटते ही सही मगर आगे बढ़ रहा था, लेकिन लॉकडाउन के अविचारित फैसले ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर पूरी तरह बेड़ियां लगा दीं, अब उन बेड़ियों को थोड़ा ढीला करके कहा जा रहा है भारत आत्मनिर्भर बनो। अब गौर करने लायक बाॅत यह कि जब लोगों के पास काम धाम ही नही होगा या फिर उन्हें आधे अधूरे वेतनमान में समय से अधिक कार्य करना पड़ेगा तो इस पूजीवादी व्यवस्था में आत्म निर्भरता की बाॅत करना तो बेमानी है। बहरहाल आर्थिक मंदी के इस दौर में माध्यम वर्ग बुरी तरह से परेशान और हैरान है। देश की 70 प्रतिशत सरकार जनता सत्तारूढ़ सरकार को लेकर एक ही गाना गुनागुना रही है कि ना ना करके प्यार तुम्ही से कर बैठे।