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भोजन और व्यायाम है स्वास्थ्य की पहिचान

डॉ महेन्द्र राणा जगजीतपुर हरिव्दार

स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक!

“भोजन राजा है, कसरत रानी। जिसने इन-दोनों को साध लिया ढंग से , शरीर का साम्राज्य उसका बहुत-हद तक सुखी।”
_एक महानुभाव ने कहा था।

“क्या खाऊँ ?”
यह प्रश्न ढेरों लोग पूछते हैं। यह पूछने वाले कम हैं , जिनका प्रश्न यह हो कि ‘क्या न खाऊँ’।
निषेधात्मक सवाल बहुधा रोगी ही पूछते हैं , वे भी पुरानी पीढ़ी के। सामान्य लोग निषेधवृत्ति में विश्वास रखते ही नहीं , नयी पीढ़ी के रोगियों को भी खाने-वाने में बन्दिशें नहीं पसन्द।

यह सच है कि भोजन और व्यायाम व्यक्ति के बुढ़ापे का एक हद तक निर्धारण करते हैं। इन दोनों को जिसने साध लिया , उसने एक सीमा तक अपना स्वस्थ बुढ़ापा सुनिश्चित कर लिया।
स्वस्थ बुढ़ापा ? बुढ़ापा भी क्या स्वस्थ होता है ? यह कैसा विरोधाभासी शब्द-युग्म हुआ !

यह सच है कि बुढ़ापा एक ऐसा रोग है , जिससे सभी को ग्रस्त होना है। जीवन की डोर अगर असमय नहीं कटी , तो बूढ़ा होना ही पड़ेगा।
वृद्धि के क्षयचिह्न कोशिकाओं में एकत्रित होते जाएँगे। कोशिकाएँ बूढ़ी होंगी , ऊतक वृद्ध होंगे। अंग जरायु होंगे और फिर शरीर भी।
फिर कहीं किसी कोने में कोई ग़लती होगी और जीवन-ज्योति बुझ जाएगी।

एंटीएजिंग क्रीमों में अत्यधिक पैसा खपाने वाले ग़लत मेहनत कर रहे हैं। एजिंग केवल त्वचा को चिकना करके नहीं मिटायी जा सकती।
बुढ़ापा केवल त्वचा का झुर्रियाना नहीं है। जिस तरह ब्यूटी केवल स्किनडीप नहीं होती , उसी तरह एजिंग भी नहीं होती। सौन्दर्य और वृद्धावस्था का त्वचा पर झलकना भीतर की झलक-भर है ; लोग हैं कि झलक में उलझ कर भीतर की सुधि ही बिसरा देते हैं।

त्वचा की देखरेख अच्छी बात है , पर केवल त्वचा की देखरेख करने वाले वे हैं , जो केवल दिखावे से जीवन चलाते आये हैं।
जैविक वय और कालक्रमिक वय में अन्तर है। जैविक वय यानी बायोलॉजिकल एज। जितनी उम्र की कार्यकुशलता आपके अंगों की है , वह वह उम्र आपकी जैविक उम्र है।
लेकिन~
जितने वर्षों से आप पृथ्वी पर जीवित हैं , वह आपकी कालक्रमिक यानी क्रोनोलॉजिकल उम्र है। दो लोग सन् 1979 में पैदा हुए हैं , उनकी कालक्रमिक वय बराबर है। वे एक ही क्रोनोलॉजिकल एज के हैं।
किन्तु अगर एक का भोजन सन्तुलित है और वह नित्य व्यायाम करता है , तब उसके अंगों की जैविक वय दूसरे असन्तुलित भोजन करने वाले और आरामपसन्द आलसी जीवन जीने रहने वाले से कम होगी।

दो मोटरसायकिलें हैं। दोनों एक ही साल बनीं और साथ ही बिकीं। एक के मालिक ने अपनी मोटरसायकिल के पुर्ज़े-पुर्ज़े की देखभाल की , उसे सँभाल कर चलाया।
दूसरे ने कोई ध्यान नहीं रखा और बेपरवाही से एक्सेलेरेटर उमेठ-उमेठ कर उसके प्राण निचोड़ दिये। दस साल बीत गये। इतने समय बाद दोनों मोटरसायकिलों की कामक्रमिक वय एक ही होगी , लेकिन जैविक वय में आकाश-पाताल का अन्तर होगा।

हमें क्रोनोलॉजिकल उम्र कोई लेना-देना नहीं है। हमें समय के क्रम में कोई दिलचस्पी नहीं है।
हमें समय के उस प्रभाव में दिलचस्पी है , जो हमें बूढ़ा बनाता है। समय बीतता हो , बीते ! बस हमें बूढ़ा करना बन्द करे !
क्रोनोलॉजी का प्रभाव हमारी बायलॉजी पर न पड़े ! हमारे अंग तरुण रहें , ऊतक भी और कोशिकाएँ भी।

बूढ़ा बनाने वाले जैविक दुष्प्रभाव अनेक हैं। कई हम जानते हैं , न जाने कितनों को नहीं जानते। सबसे आसान दुष्प्रभाव अंटशंट खाने और आलसी ज़िंदगी जीने का है।
न जाने कितने ही देह-देश ऐसे हैं , जिनके राजा और रानी दोनों आलसी , नाकारा और मक्कार हैं। यहाँ अनुशासन नहीं है , यहाँ अराजकता है।
इसी अराजकता के कारण ढेरों रोग जनता में फैले हैं। इन्हीं रोगों में एक महत्त्वपूर्ण रोग वृद्धावस्था है। अराजक दौर से गुज़रते-गुज़रते शीघ्र ही ये देह-देश नष्ट हो सकते हैं।

समाज में आसपास लोगों को देखिए। ढेरों ऐसे मिलेंगे जो बुढ़ापा टालने में लगे हैं , तो ढेरों ऐसे हैं जो लापरवाही में लिप्त हैं।
फिर लेकिन एक बड़ा तबका उन लोगों का भी है , जो चाहकर भी जवान बने नहीं रह सकते। उनके पास भोजन को चुन सकने की सुविधा नहीं है , न वे अलग से व्यायाम कर सकते हैं।

ग़रीबी और विषमता ऐसे महत्त्वपूर्ण वृद्धावस्थाकारक हैं , जिनसे न जाने कितने ही पार नहीं पा सके हैं। ये अपने लिए राजकता-अराजकता में चुनाव करें तो कैसे करें !

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