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भारी पड़ रहा है ? किसान आंदोलन को खालिस्तानी मदद का आरोप

भारत में पिछले ढाई महीनों से नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जारी किसान आंदोलन दुनियाभर में लोगों का ध्यान आकर्षित करता जा रहा है. कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों में प्रवासी भारतीय किसानों के पक्ष में रैलियाँ कर रहे हैं और भारतीय मूल के और स्थानीय नेता भारत में आंदोलन कर रहे किसानों के पक्ष में बयान दिए जा रहे हैं.भारत सरकार के कुछ मंत्रियों, सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों और भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से की ओर से आंदोलन करने वाले किसानों के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम लगाए जा रहे हैं कि किसान आंदोलन और इसके समर्थकों की मदद विदेश में बसे खालिस्तानी कर रहे हैं.

ये भी आरोप है कि 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा भारत के ख़िलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय साज़िश का नतीजा थी. लेकिन किसान आंदोलन के समर्थन की आवाज़ कैलिफ़ोर्निया के एक छोटे शहर में भी सुनाई दी. रविवार को सुपर बोल कहे जाने वाले नेशनल फुटबॉल लीग चैंपियनशिप के अंतिम गेम और अमेरिका के सबसे लोकप्रिय खेल प्रतियोगिता को 12 करोड़ लोगों ने टीवी पर देखा.

खेल शुरू होने से पहले कमर्शियल ब्रेक के दौरान कैलिफ़ोर्निया के फ्रेस्नो काउंटी में 30 सेकंड का एक विज्ञापन प्रसारित किया गया, जिसमें भारतीय कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे भारतीय किसानों के विरोध प्रदर्शन को दिखाया गया. कैलिफ़ोर्निया के कृषि उत्पाद के लिए चर्चित फ्रेस्नो शहर के मेयर जेरी डायर ने इस वीडियो विज्ञापन में किसानों के आंदोलन का समर्थन किया.

पिछले दिनों अमेरिकी पॉप स्टार रिहाना का किसानों के पक्ष में एक ट्वीट इस विरोध प्रदर्शन को वैश्विक सुर्खियों में ले आया. ट्विटर पर रिहाना के 10 करोड़ से अधिक फ़ॉलोअर्स हैं. इस ट्ववीट ने विरोधों की रूपरेखा को बड़ा कर दिया और इसे दुनिया भर में हाई-प्रोफ़ाइल हस्तियों से समर्थन प्राप्त हुआ. इसके तुरंत बाद युवा पर्यावरणवादी ग्रेटा थनबर्ग ने अपने एक ट्वीट से किसानों के साथ “एकजुटता” का संकल्प लिया. अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस ने भी किसानों के साथ एकजुटता व्यक्त की. इस पर भारत में काफ़ी हंगामा हुआ. बॉलीवुड और खेल के मैदान के सेलिब्रिटीज ने अपनी प्रतिक्रिया दी और भारत सरकार के पक्ष में ट्वीट किए.

कौन कर रहा है मदद – इस हफ़्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में किसान आंदोलन के बीच “आंदोलनजीवियों” से बचने की सलाह दी. उनके अनुसार किसानों के शांतिपूर्ण विरोध के बीच कुछ लोग नक्सलियों, आतंकवादियों और राष्ट्र को नुक़सान पहुँचाने वाले पोस्टर लेकर खड़े रहते हैं. उन्होंने कहा, “जो भाषा उनके लिए (सिखों के लिए) कुछ लोग बोलते हैं, उनको गुमराह करने का प्रयास करते हैं, इससे कभी देश का भला नहीं होगा. हमें ऐसे (आंदोलनजीवी) लोगों को पहचानना होगा. देश आंदोलनजीवी लोगों से बचे. आंदोलनजीवी परजीवी होते हैं.” लंदन में भारतीय मूल के सांसद 73 वर्षीय वीरेंदर शर्मा पूछते हैं कि क्या भारत सरकार के पास इस बात का सबूत है कि इस आंदोलन में खालिस्तानी शामिल हैं या वो आंदोलन कर रहे किसानों की मदद कर रहे हैं? उन्होंने बीबीसी से बातें करते हुए कहा, “ये एक धारणा तो हो सकती है लेकिन भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे लोगों के बारे में बताए.”

वो अपना तर्क आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “खालिस्तानियों की मदद का सबूत दें और फिर उनकी कूटनीति की बात आती है. भारतीय सरकार ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका की सरकारों के साथ बात करे और कहे कि आपके देश में ऐसे एलिमेंट्स (ख़ालिस्तानी) बैठे हैं और भारत में आंदोलन कर रहे किसानों की मदद कर रहे हैं.’

किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह दिल्ली में किसान आंदोलन के एक नेता हैं, वो कहते हैं कि भारत सरकार और बीजेपी उनके आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश में लगी है.

वो कहते हैं, “पहले सिखों का बताया ताकि उसे आसानी से खालिस्तान से जोड़ दें, वो नाकाम रहा. फिर इसको केवल पंजाब का आंदोलन बताया. फिर केवल पंजाब और हरियाणा का. इनकी कोशिश है देशद्रोही साबित करने की, लेकिन इसमें ये नाकाम रहे”

कनाडा में ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के प्रीमियर रह चुके भारतीय मूल के राजनेता उज्जल दोसांझ ये स्वीकार करते हैं कि कनाडा में किसानों के पक्ष में जारी रैलियों में खालिस्तानी हो सकते हैं, लेकिन वो केवल मुठ्ठी भर हैं.

वैंकुवर से बीबीसी से बातें करते हुए वो कहते हैं, “यहाँ या अमेरिका और ब्रिटेन में (भारतीय मूल के लोगों के बीच) सिर्फ़ दो प्रतिशत आबादी हो सकती है, जो कट्टर ख़ालिस्तानी हैं. और अगर किसी जगह पर 200 लोगों का प्रदर्शन है और उसमें केवल दो खालिस्तानी मौजूद हैं, तो क्या आपको लगता है कि भारत को वास्तव में इससे ख़तरा है? ये बिलकुल बकवास बात है.”

उज्जल दोसांझ 18 वर्ष की उम्र में पंजाब से कनाडा आकर बसे थे. वो कहते हैं कि उनका परिवार अब भी पंजाब के दोसांझ कलाँ में है और वो मौजूदा हालात से चिंतित हैं.

वो कहते हैं कि किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी रंग देना ग़लत है. वो कहते हैं, “कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन में आबाद कुछ लोगों की वजह से पूरे आंदोलन को बदनाम करना केवल एक बहाना है. ये छोटे किसान हैं, जो अपनी वित्तीय सुरक्षा, अपने जीवन और अपनी भूमि को संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं.”

उनका कहना है कि बीजेपी सरकार अपने ख़िलाफ़ सभी आंदोलनों को बदनाम करने की कोशिश करती आ रही है, वो कहते हैं, “नरेंद्र मोदी के अंतर्गत भारत सरकार ने सियासत के सभी मुद्दों को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है, चाहे वो बंगाल का चुनाव हो या कोई दूसरा चुनाव हो, चाहे वो शाहीन बाग़ का आंदोलन हो, या जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हुई घटना का मामला हो या फिर जामिया मिल्लिया इस्लामिया में विद्यार्थियों की पुलिस पिटाई का मामला हो. सही बात तो ये है कि बीजेपी को नहीं मालूम कि देशभक्ति क्या होती है.”  गुरप्रीत सिंह पिछले 30 सालों से पत्रकार हैं और पिछले 20 सालों से कनाडा में आबाद हैं. वो किसानों के आंदोलन के पक्ष निकलने वाली रैलियों में हिस्सा लेते हैं.

वैंकुवर के नज़दीक सरी के इलाक़े में शाम में तीन घंटे के लिए भारतीय किसानों के आंदोलन के साथ एकजुटता दिखाने के लिए रोज़ प्रदर्शन होता है, जिसमे 200-250 लोग भाग लेते हैं.

वे कहते हैं, “हम इंडिया वालों को ये नहीं कहते हैं कि आपका क़ानून ग़लत है. लेकिन वहाँ (भारत में ) आंदोलन से जो अशांति फैली है, उससे हमारे लोग चिंतित हैं. क्योंकि हम भारतीय मूल के हैं और हमारे वहाँ रिश्तेदार हैं. तो उससे प्रभावित होकर हम बयान देते हैं, हम भारत के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप नहीं करते.” वीरेंदर शर्मा भारत सरकार को ये याद दिलाना चाहते हैं कि उनके जैसे सांसद और भारतीय मूल के लोग जिन देशों में रह रहे हैं, उनके और भारत के बीच एक कड़ी की तरह हैं. उनके अनुसार भारत के दूसरे देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने में भारतीय मूल के लोगों की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. वीरेंदर शर्मा भी पंजाब से आकर ब्रिटेन में बसे हैं और उनके वोटरों की एक भारी संख्या पंजाब से है. वे कहते हैं, “उनका हम पर दबाव होता है. वो हमसे कहते हैं कि पंजाब के किसानों के ख़िलाफ़ हिंसा हो रही है.” शर्मा ये ज़रूर स्वीकार करते हैं हैं कि इस मुद्दे पर राय बँटी हुई है “लेकिन बहुमत उनका है, जो किसानों के पक्ष में हैं.”

किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, “पहली बात तो ये है कि आज दुनिया एक ग्लोबल विलेज है. किसी भी देश में घटना घटती है, तो कोई भी अपने विचार रख सकता है. अब जैसे बर्मा वाली घटना में हमारे देश से ट्वीट किए गए. कोई मंदिर टूट जाए पाकिस्तान में, तो हम कूदते हैं. बांग्लादेश में हिंदुओं का दमन हो, तो हम उछलने लगते हैं. ये कभी आपके पक्ष में हो सकता है, कभी आपके ख़िलाफ़ भी हो सकता है. इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.”

इसका असर क्या होगा? – कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आंदोलनकारी किसानों के समर्थन में बयान दिए हैं

ब्रिटिश कोलंबिया के पूर्व प्रीमियर उज्जल दोसांझ इस बात से चिंतित हैं कि अगर आंदोलन ने तूल पकड़ा या आंदोलन करने वाले किसानों को खालिस्तानी होने का इलज़ाम लगाया जाना ख़त्म नहीं हुआ, तो इसके परिणाम क्या होंगे. वो कहते हैं, “मुझे डर है कि अगर मोदी सरकार की हरकतों से अगर कुछ ग़लत होता है, अगर सरकार कोई ग़लत क़दम उठाती है, तो कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटैन जैसी जगहों पर विदेशों में एक छोटे से अल्पसंख्यक तत्व हैं, जो फ़ायदा उठा सकते हैं और यह देश के लिए मुसीबत पैदा कर सकता है.”

ब्रिटिश सांसद वीरेंदर शर्मा के अनुसार इससे स्वयं नरेंद्र मोदी की छवि पर असर पड़ सकता है. वो कहते हैं, “मोदी ने विदेशी नीति के तहत रिश्ते बनाए हैं, इज़्ज़त बनाई है, उनकी विदेशी यात्राएँ कामयाब रही हैं, लेकिन इससे (किसान आंदोलन से) इनकी साख कमज़ोर हुई है.” जस्टिन ट्रूडो जैसे नेताओं के बयानों पर वीरेंदर शर्मा बोले, “जब सियासी लीडरशिप सवाल करती है, तो इसका असर पड़ता है. स्वाभाविक है कि जब सवाल खड़े होते हैं तो आपकी लोकप्रियता में कमी आती है.”

चौधरी पुष्पेंद्र सिंह के अनुसार सरकार के पास किसान आंदोलन को बदनाम करने के अलावा आईसीई तंत्र है, जिसका मतलब हुआ इनकम टैक्स, सीबीआई और ईडी विभाग. वो कहते हैं, “ये तंत्र किसानों पर नहीं चल पाएँगे. हमारा आंदोलन उस समय तक जारी रहेगा, जब तक सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस नहीं ले लेती.” लेकिन सरकार के समर्थकों और बीजेपी के नेता आरोप लगाते हैं कि किसान आंदोलन में “देशद्रोही’ लोग शामिल हो गए हैं.

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