दिल्ली

बंदरों की मदद से बनी थी स्वदेशी काेरोना वैक्सीन कोवैक्सीन

नई दिल्ली. भारत की स्वदेशी कोरोना वैक्सीन कोवैक्सीन को विश्व के कई देशों ने मंजूरी दे दी है. लेकिन क्या आप जानते हैं कोवैक्सीन के ट्रायल में रीसस मकाक बंदरों ने अहम भूमिका निभाई थी. ‘गोइंग वायरल: मेकिंग ऑफ कोवैक्सिन द इनसाइड स्टोरी’ नामक किताब में इस बात का जिक्र किया गया है. किताब में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ बलराम भार्गव भारत के स्वदेशी वैक्सीन को बनाने, ट्रायल और अप्रूवल के बारे में कुछ ऐसी बातों का जिक्र किया है, जिसके बारे में किसी को नहीं पता है.

इस किताब में आईसीएमआर के महानिदेशक ने कोविड-19 महामारी के खिलाफ भारतीय वैज्ञानिकों की चुनौतियां, वैक्सीन के निर्माण के लिए एक मजबूत प्रयोगशाल नेटवर्क का विकास, डाइग्नोसिस, ट्रीटमेंट और सीरोसर्वे से लेकर नई तकनीकों के साथ-साथ कई अहम बातों को खुलासा किया है. डॉ. भार्गव का कहना है कि यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि कोवैक्सीन की सफलता की कहानी के नायक सिर्फ इंसान ही नहीं हैं क्योंकि इसमें 20 बंदरों का भी योगदान हैं, जिनकी बदौलत अब हम में से लाखों लोगों के पास जीवन रक्षक टीका है. किताब में आगे कहा गया है कि जब हम इस स्तर पर पहुंचे जहां हम यह जानते थे की वैक्सीन छोटे जानवरों में एंटीबॉडी बना सकती है, तो अगला कदम बंदर जैसे बड़े जानवरों पर इसका परीक्षण करना था. जिनके शरीर की संरचना और प्रतिरक्षा प्रणाली मनुष्यों से मिलती जुलती है. दुनिया भर में चिकित्सा अनुसंधान में उपयोग किए जाने वाले रीसस मकाक बंदरों को इस तरह के रिसर्च के लिए सबसे अच्छा माना जाता है.

कोवैक्सीन के निर्माण की कहानी के बारे में आगे बताते हुए डॉ. भार्गव ने कहा, आईसीएमआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी की लेवल 4 प्रयोगशाला, जो कि प्राइमेट स्टडी के लिए भारत में एकमात्र अत्याधुनिक सुविधा है. इसने एक बार फिर से इस महत्वपूर्ण रिसर्च को करने की चुनौती को स्वीकार किया. इसके बाद सबसे बड़ी बाधा यह थी कि रीसस मकाक बंदरों को कहां से लाएं क्योंकि भारत में लैबोरेट्रीज ब्रीड डवाले रीसस मकाक नहीं है? इसके लिए नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के रिसर्चरों ने पूरे भारत में कई चिड़ियाघरों और संस्थानों से संपर्क किया. इसके लिए जवान बंदरों की जरूरत थी जिनके शरीर में अच्छी एंटीबॉडी हो.

वैक्सीन के ट्रायल के लिए आईसीएमआर-एनआईवी की एक टीम बंदरों की पहचान करने और उनको पड़कने के लिए महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों का दौरा किया. उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के कारण इन बंदरों के सामने भोजन संकट पैदा हो गया था, जिसके कारण वह घने जंगल में चले गए थे. इसके बाद वैज्ञानिकों की मदद के लिए महाराष्ट्र के वन विभाग ने वर्ग किलोमीटर जंगलों को स्कैन करके नागपुर में बंदरों को ट्रैक किया.

 

 

 

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