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जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एक्ट पर दिए गए अपने ही फैसले पर जताया संदेहं

नई दिल्ली :सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के उन फैसलों पर संदेह जाहिर किया है, जिनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (5) की व्याख्या की गई थी। इस फैसले में कहा गया था कि यह धारा तभी लगाई जा सकती है जब अपराध केवल इस आधार पर किया गया हो कि पीड़ित अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य था। कोर्ट ने कहा अगर ये फैसले स्वीकार किए जाते हैं तो यह एससी-एसटी के लोगों के प्रति किए जाने वाले अपराधों को कमतर करने जैसा होगा। ये सभी फैसले दो जजों की पीठों के हैं।

जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की दो सदस्यीय पीठ ने फैसले में कहा कि यह प्रावधान तब तक लागू होता रहेगा जब तक व्यक्ति की जातिगत पहचान अपराध की घटना के आधारों में से एक है। यानी कि यह पता होना कि वह एससी-एसटी सूमह से है। कोर्ट ने कहा कि यदि हम इस आधार पर धारा 3 (2) (5) के संरक्षण से इनकार करते हैं तो यह मानने से इनकार करने जैसा होगा कि किस तरह से सभी सामाजिक असमानताएं एकसाथ जुड़कर एक नतीजा पैदा करती है। यानी कि व्यक्ति का दलित होना, गरीब होना, महिला होना और विकलांग होना- ये सभी कारक आपस में जुड़कर एक ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जो सामान्य जाति वाले व्यक्ति को उनके खिलाफ अपराध करने को प्रेरित करता है।

पीठ ने हालांकि इस मुद्दे को बड़ी पीठ के पास नहीं भेजा क्योंकि मौजूदा मामले में इस बात के सबूत नहीं थे अपराध इस आधार पर किया गया था कि ऐसा व्यक्ति एससी या एसटी का सदस्य है। कोर्ट ने कहा कि भविष्य में उपयुक्त मामले में इसे बड़ी पीठ को भेजा जाएगा। वहीं, कोर्ट ने यह भी पाया कि अपराध 2011 में हुआ था जबकि एससी-एसटी ऐक्ट में सुधार 2016 में हुआ जिसमें उक्त प्रावधान जोड़ा गया कि अपराध व्यक्ति के एससी एसटी होने के कारण किया गया। इसलिये यह प्रावधान इस मामले में लागू नहीं होगा।

कोर्ट ने दोषी जमालवली पाटन को जन्म से अंधी युवती के साथ रेप करने के दोष में आईपीसी की धारा 376(1) के सेशन कोर्ट द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा बरकरार रखी और एससी एसटी एक्ट की धारा 3 (2) (5) के तहत दी गई उम्रकैद की सजा को निरस्त कर दिया। मामला आंध्र प्रदेश का है।

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