राष्ट्रीय

राष्ट्र की तुलना में समाज ज्यादा महत्वपूर्ण

नई दिल्ली . जाने-माने विचारक, दार्शनिक और राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ के सह-संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आज पुण्यतिथि है. इनका शव वाराणसी के करीब मुगलसराय जंक्शन पर 11 फरवरी 1968 को लावारिस हालत में पाया गया था. उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में हुए मौत का राज कभी सामने नहीं आ सका. चोरी के इरादे से उनकी हत्या का आरोप जिन लोगों पर लगाकर सजा हुई, उस पर किसी को शायद ही भरोसा हुआ. बाद में जनसंघ के ही एक बड़े नेता ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत को एक राजनैतिक हत्या करार देकर सनसनी फैलाने का काम किया था.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव 1937 में हुआ था और कुछ समय बाद ही वे आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए. इसके बाद 1951 तक उन्होंने यूपी के सह प्रांत प्रचारक का दायित्व संभाला. पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन में एक बड़ा बदलाव तब आया जब उनको जनसंघ के साथ काम करने का दायित्व सौंपा गया. दीनदयाल उपाध्याय 1952 से 1967 तक जनसंघ के महामंत्री रहे. इस दौरान कोई भी जनसंघ का अध्यक्ष रहा हो, पार्टी का संगठन दीनदयाल उपाध्याय के मार्गदर्शन में ही चलता रहा.

जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में एक दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी मौत के केवल 43 दिन पहले ही जनसंघ का अध्यक्ष पद संभाला था. जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के बाद बने राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी पर आज भी पं. दीनदयाल उपाध्याय का असर बरकरार है. दीनदयाल उपाध्याय ने केवल राजनैतिक स्तर पर ही कांग्रेस का एक विकल्प को तैयार करने की उस समय की सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं की कोशिशों को कभी भी सही माना. इसके विपरीत उन्होंने भारतीय समाज के भीतर से राज्य की शक्ति की मदद के बगैर राष्ट्र के सामर्थ्य को तैयार करने के बारे में विचार किया.

राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर राजनीति कर रहे लोगों के लिए भी इस बात को मानना थोड़ा कठिन हो सकता है कि जिसके विचारों का वे सार्वजनिक जीवन में आचरण करने का दावा करते है, उसी दीनदयाल उपाध्याय ने कभी भी राज्य या सत्ता की ताकत को समाज से ऊपर नहीं रखा. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने समाज को हमेशा राष्ट्र की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण माना है. उनका कहना था कि एक समय बहुत ताकतवर माने जाने वाले राष्ट्र जैसे-यूनान, मिस्र, रोम आदि नष्ट हो गए. जबकि राष्ट्रविहीन यहूदियों ने अपनी सामाजिक ताकत के बल पर हजारों साल के बाद फिर से अपना राष्ट्र खड़ा कर लिया है. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राज्य को एक बड़ी ताकत माना है लेकिन उसे सर्वोच्च ताकत नहीं मानते थे.

अपने विचारों को एकात्म मानववाद के रूप में पेश करते हुए दीनदयाल उपाध्याय को भरोसा था कि भारत राष्ट्र का विकास पश्चिमी देशों के अंधे अनुकरण से कभी भी संभव नहीं होगा. अपनी अवधारणा में दीनदयाल साफ कहते हैं कि जिस तरह से कोई मानव जन्म लेता है, ठीक उसी तरह से किसी समाज का भी जन्म होता है. व्यक्ति और व्यक्ति मिलकर कभी समाज की रचना नहीं कर सकते हैं. समाज कोई ज्वाइन्ट स्टॉक कंपनी नहीं है. समाज भी इंसान की तरह से जीवंत सत्ता है. पंडित दीनदयाल उपाध्याय का दृढ़ विश्वास था कि हर देश की अपनी विशेष सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां होती हैं.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने महाराष्ट्र के वीर शिवाजी के उदाहरण से भी बताया कि अगर समाज की शक्ति संगठित हो और उसे सही दिशा देने वाला नेता मिले तो कोई राष्ट्र या समाज विपरीत हालातों और कठिन परिस्थितियों का न केवल सामना कर सकता है, वरन उनसे मुक्ति भी हासिल कर सकता है. उनका मानना था कि तत्कालीन सरकार ने भारतीय समाज की ताकत को कम करने की ब्रिटिश हुकूमत की चालाकियों को लगातार जारी रखा है और इसलिए उसका विरोध होना चाहिए. पंडित दीनदयाल उपाध्याय का साफ मानना था कि लोगों के जीवन का समान ध्येय, आदर्श, विचार और मिशन ही किसी राष्ट्र की आत्मा होता है. अगर किसी देश के नागरिकों के जीवन में इसका अभाव है तो राष्ट्र सशक्त नहीं बनेगा.

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