मुस्लिम मतदाताओं की खामोशी तय करेगी हार-जीत का फैक्टर !!
लखनऊ- उत्तर प्रदेश की सियासत में मुस्लिम समुदाय बड़ा वोट बैंक माना जाता है। ये मुस्लिम वोटर्स यूपी में होने वाले हर चुनाव में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन करता रहा है। यूपी के मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा समेत हर दल अपने खेमे में लाने की कोशिश में जुटे रहते हैं। साल 2017 में हुए विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने मुस्लिम वोट बैंक में भारी सेंधमारी करते हुए 85 मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर अपनी जीत हासिल कर प्रदेश में सत्ता संभालने का काम किया था। एक बार फिर साल 2022 में हो रहे विधानसभा के चुनाव में विपक्षी दल इस बडे वोट बैंक के सहारे सत्ता हासिल करने की कोशिश में है। उधर भाजपा राजनीति के इस भ्रम को तोडने के प्रयास में है। लेकिन इस बार के चुनाव में पहले फेज के को छोड़ दें तो मुस्लिमों मतदाताओं की खामोशी से सभी सियासी दलों की माथे पर सिलवटें जरूर देखी जा रही है। यूपी में मुस्लिम वोट बैंक लगभग 150 सीटों पर हार-जीत की अहम भूमिका निभाता है।
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2019 में मुस्लिम वोट बैंक की ताकत हुई कम – साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मुसलमानों की वोट बैंक की ताकत कम हुई है। इसलिए पिछले विधानसभा चुनाव में बदले माहौल के बाद राजनीतिक दलों ने अपनी रणनीति बदलने का भी काम किया। पर इस बार फिर इसे लेकर गैरभाजपा दल प्रयास कर रहे हैं। साल 2017 में हुए विधानसभा के चुनाव में अब तक के इतिहास के सबसे कम 23 विधायक ही जीत पाने में कामयाब हो सके। साल 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी की कुल आबादी में 20 फीसदी से अधिक मुस्लिम हैं। मुस्लिमों की इतनी बड़ी आबादी का साफ मतलब है कि एक बड़ा वोट बैंक, जो करीब 145 विधानसभा सीटों पर हार-जीत का फैसला करती है। समाजवादी समेत सभी विपक्षी पार्टियां मुस्लिमों वोटों को अपने पाले में लाने की कोशिश में जुटी है, जबकि भाजपा प्रदेश की सियासत में इस भ्रम को तोड़ने में लगी है।
यूपी की 147 सीटों पर तय करते हैं हार-जीत – बता दें कि उत्तर प्रदेश की 147 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान मतदाता किसी भी दल के उम्मीदवार की हार-जीत का फैसला करने की ताकत रखता है। आंकड़ों के अनुसार रामपुर जिला सबसे आगे हैं। जहां मुसलमान मतदाताओं की संख्या 42 फीसदी है। मुरादाबाद में 40, बिजनौर में 38, अमरोहा में 37, सहारनपुर में 38, मेरठ में 30, कैराना में 29, बलरामपुर और बरेली में 28, संभल, पडरौना और मुजफ्फरनगर में 27, डुमरियागंज में 26 और लखनऊ, बहराइच व कैराना में मुसलमान मतदाता 23 फीसद हैं। इनके अलावा शाहजहांपुर, खुर्जा, बुलन्दशहर, खलीलाबाद, सीतापुर, अलीगढ़, आंवला, आगरा, गोंडा, अकबरपुर, बागपत और लखीमपुर में मुस्लिम मतदाता कम से कम 17 फीसदी है।
वर्ष1951 में 44 मुस्लिम बने थे विधायक – साल 1991 में भी 23 मुस्लिम विधायक जीत दर्ज कर पाये थे। वर्ष 1951 में उत्तर प्रदेश में हुए पहले विधानसभा चुनाव की बात की करें तो इस चुनाव में 44 मुस्लिम विधायक जीते थे। वर्ष 1957 में यह संख्या घट कर 37 रह गई थी। इसके बाद साल 1962 के विधानसभा चुनाव में 29 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की। जबकि वर्ष 1967 में यह संख्या घट कर 24 पर आ टिकी। इस चुनाव में मुसलमानों की कम नुमाइंदगी को देखते हुए अल्पसंख्यक मतदाताओं ने वर्ष 1969 के चुनाव में 34, साल 1974 में 40, साल 1977 में 48, वर्ष 1980 में 49 और साल 1985 में 50 उम्मीदवारों को जिताकर विधानसभा भेजा। 1985 के बाद मुस्लिम मतदाताओं में शुरू हुई सेंधमारी साल 1985 के बाद मतदाताओं की इस बिरादरी में सेंधमारी शुरू हुई। जिसका नतीजा रहा कि वर्ष 1989 में इनकी संख्या 50 से घटकर 41 पर आ गई। इसके बाद साल 1991 में ये संख्या और घटकर 23 पर आकर सिमट गई। वर्ष 2002 में मुसलमानों ने अपनी घटती नुमाइंदगी को संदीजगी से लिया। जिसके चलते उनके 44 विधायकों ने जीत दर्ज की।