महाराणा प्रताप ने कैसे वापस लिया अपना गौरव

राजस्थान: में मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप का जीवन बड़े संघर्षों में बीता इसमें से अधिकांश संघर्ष उनके खुद के चुने हुए थे क्योंकि उन्होंने मुगलों की गुलामी किसी कीमत पर स्वीकार नहीं थी. हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना को लोहे के चने चबवाने के बाद 21 साल तक वे अपना संपूर्ण मेवाड़ राज्य लेने के लिए संघर्ष करते रहे और 1597 तक अपने मेवाड़ का अधिकांश हिस्सा लेकर ही दुनिया को अलविदा कहा.
भारत का गौरवशाली इतिहास अनेक महावीर राजाओं की कहानियों से भरा पड़ा है. लेकिन इन में से महाराणा प्रताप की कहानी कुछ अलग ही है. वैसे तो यह कहानी एक साधारण से राजा की लगती है जो अपने राज्य को पूरी तरह से वापस हासिल करने के लिए संघर्ष करता रहा है. लेकिन यह कहानी एक देशभक्त और देश के लिए किसी भी कीमत पर समझौता करने वाला अदम्य साहसी राजा की है जो आज भी राजपूतों में एक बहुत बड़ी मिसाल मानी जाती है. आज महाराणा प्रताप की पुण्यतिथि है.
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 मेवाड़ के कुंभलगढ़ में हुआ था. उदय सिंह द्वितीय और महारानी जयवंता बाई के सबसे बड़े बेटे महाराणा प्रताप की वीरता के बहुत से किस्से हैं जिनकी पुष्टि उनके युद्ध की घटनाएं करती हैं. इसका सबसे बड़ा प्रमाण 8 जून 1576 ईस्वी में हुए हल्दी घाटी के युद्ध में देखने को मिला जहां महाराणा प्रताप की लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों की सेना का सामना आमेर के राजा मान सिंह के नेतृत्व में लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना से हुआ था.
तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप प्रताप जख्मी हो गए थे. कुछ साथियों के साथ वे पहाड़ियों में जाकर छिप गए जिससे वे अपने सेना को जमा कर फिर से हमला करने के लिए तैयार कर सकें. लेकन तब तक मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 हो गई थी जबकि अकबर की मुगल सेना ने 350 घायल सैनिकों के अलावा 3500-7800 सैनिक गंवा दिए थे.
कई इतिहासकार मानते हैं कि हल्दी घाटी के युद्ध युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ. माना यह जा रहा था कि अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत ज्यादा देर नहीं टिक पाते. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, और राजपूतों ने मुगलों की सेना में ऐसी हलचल मचा दी थी कि मुगलों की सेना में अफरातफरी मच गई थी. इस युद्ध में महाराणा प्रताप ( की सेना के क्षत विक्षत होने पर उन्हें जंगल में छिपना पड़ा और फिर से अपनी ताकत जमा करने का प्रयास करने लगे. महाराणा ने गुलामी की जगह जंगलों में रहकर भूखों रहना पसंद किया लेकिन कभी अकबर की बड़ी ताकत के आगे नहीं झुके.
महाराणा प्रताप ने इसके बाद अपने खोई हुई ताकत बटोरने के दौरान प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया. यह रणनीति पूरी तरह से सफल रही और वे कभी अकबर के सैनिकों की लाख कोशिशों के बाद भी उनके हाथ नहीं आए. कहा जाता है इस दौरान राणा को घास की रोटी तक पर गुजारा करना पड़ा. लेकिन 1582 में दिवेर का युद्ध एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ.
दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके बाद राणा प्रताप व मुगलों के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में बदल गया, जिसके कारण इतिहासकारों ने इसे “मेवाड़ का मैराथन” कहा. पहले राणा छ्पपन और फिर मालवा को मुगलों से मुक्त किया और उसके बाद कुंभलगढ़ और मदारिया अपने हाथ में ले लिया. फिर 1582 में महाराणा ने दिवेर पर अचानक धावा बोल दिया और इसका फायदा उठाकर भागती सेना के हौसले पस्त कर दिवेर पर कब्जा कर लिया.
अकबर इस बीच बिहार बंगाल और गुजरात में विद्रोह दबाने में लगा था जिससे मेवाड़ पर मुगलों का दबाव कम हो गया. देविर की लड़ाईके बाद महाराणा प्रताप ने उदयपुर समेत 36 अहम जगहों पर अपना अधिकार कर लिया. और राणा का मेवाड़ के उसी हिस्से पर कब्जा हो गया जब उनके सिंहासन पर विराजने के समय था. इसके बाद महाराणा ने मेवाड़ के उत्थान के लिए काम किया, लेकिन 11 साल बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई.