भारतीय जनता पार्टीऔर समाजवादी पार्टी किसका चलेगा कार्ड ?

नई दिल्ली. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए पहले चरण का मतदान 10 फरवरी को है. यह तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, हर पार्टी की चुनावी रणनीति स्पष्ट होती जा रही है. यहां मुख्य मुकाबला चूंकि भारतीय जनता पार्टीऔर समाजवादी पार्टी ) के बीच ही है. इसलिए इन दोनों पार्टियों की रणनीति पर गौर किया जा सकता है. इनमें भाजपा जहां हिंदुत्व के इर्द-गिर्द घूमती दिख रही है, वहीं सपा ने अन्य पिछड़ा वर्गों के आसपास अपना गणित बुना है. लेकिन सवाल उठता है कि इनमें से किसका कौन सा कार्ड चलेगा? और अब तक क्या स्थिति है?
उत्तर प्रदेश में जब मुलायम सिंह यादव के हाथ में सपा की कमान थी, तो पार्टी की छवि मुस्लिम-यादव ) गठजोड़ की समर्थक वाली बन गई थी. लेकिन अब मुलायम सक्रिय राजनीति से बाहर से हैं. पूरी तरह से उनके बेटे अखिलेश यादव के हाथ में कमान है, जिन्होंने पार्टी की पुरानी छवि को तोड़ने पर पूरा जोर लगा दिया है. इसके लिए उन्होंने जाट नेता जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोकदल से गठबंधन किया. स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे कद्दावर ओबीसी नेताओं को भाजपा से तोड़कर अपनी पार्टी में लाए. साथ ही ओबीसी के लिए लगातार कई लुभावनी घोषणाएं भी कीं.
इस सबका नतीजा? जैसा कि फतेहाबाद के सपा समर्थक भावसिंह गुर्जर ‘‘हमारी रणनीति काम कर रही है. हमारे समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ रही है. अब जाट हमारे साथ हैं, मौर्य और कुछ अन्य ओबीसी जातियां भी. इनमें से कुछ 2017 और 2019 में भाजपा के साथ चली गई थीं. अब वापस सपा के पास लौटती दिख रही हैं.’ ऐसे ही एक अन्य पार्टी समर्थक लक्ष्मण माहौर कहते हैं, ‘ओबीसी तो क्या दलित भी सपा-आरएलडी की सरकार में वापसी चाहते हैं. यह चुनाव नतीजों से साबित हो जाएगा.’
वहीं, भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर निर्माण से आस लगी हुई है. पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के गृह मंत्री अमित शाह ने जिस तरह कैराना से अपने ‘घर-घर, द्वार-द्वार’ चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत की, उससे यह स्पष्ट है. यहां उन्होंने उन परिवारों से खास तौर पर मुलाकात की, जो 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से घर छोड़कर चले गए थे. फिर भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार बनने के बाद घर लौटे हैं. अमित शाह अपने दौरों में इसका और ऐसी मिलती-जुलती अन्य बातों को वे विशेष रूप से उल्लेख भी कर रहे हैं.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो स्पष्ट तौर पर कई मर्तबा कह चुके हैं कि चुनाव 80:20 का है. यहां 80 से उनका आश्रय हिंदू समुदाय की आबादी के प्रतिशत से है. फिर, राम मंदिर के निर्माण का काम भी अयोध्या में तेजी से जारी है. इसे भी भाजपा अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रही है.
संभवत: इसीलिए आगरा के सपा समर्थक महेश चंद्र यादव कहते हैं, ‘समीकरण बन तो रहे हैं, लेकिन सपा-आरएलडी की सरकार बनेगी, ऐसा अभी मुश्किल लगता है. शहरों में भाजपा के जनाधार का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. ओबीसी भी अभी खुलकर यह नहीं बता रहे हैं कि वे किसके साथ जाएंगे. वहीं, भाजपा का अपना वोट-बैंक उससे दूर नहीं जाने वाला. इससे अभी इतना ही लग रहा है कि सपा-आरएलडी चुनाव में भाजपा को तगड़ी टक्कर दे रहे हैं.’
कासगंज के सामाजिक कार्यकर्ता दिनेश कुमार इसमें एक और बात जोड़ते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का तोड़ किसी के पास नहीं है. ओबीसी हों, एससी-एसटी हों या अन्य. किसी भी दल के समर्थक रहे हों लेकिन मोदी की जब बारी आती है, तो वे उनके साथ जाते हैं. जैसे ही मोदी चुनाव प्रचार के लिए उतरेंगे, सबके गणित-समीकरण धरे रह जाएंगे.’
स्थिति, चूंकि अभी स्पष्ट नहीं कही जा सकती. इसलिए पिछले विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर भी एक नजर डाली जा सकती है. भाजपा ने 2017 में राज्य की 384 सीटों पर चुनाव लड़ा था. पिछड़ वर्गों के समर्थक नेता- ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, अनुप्रिया पटेल आदि सब उस समय भाजपा के साथ थे. भाजपा ने 312 सीटें जीतीं. उसे ओबीसीके बंपर समर्थन सहित कुल 39.7% वोट मिले. जबकि सपा ने 311 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. इनमें से 47 सीटें ही वह जीत सकी. उसे कुल 21.82% वोट मिले थे. अब इन आंकड़ों के साथ वर्तमान संदर्भ में यह भी ध्यान रखा जा सकता है कि राजभर और मौर्य दोनों ने ही भाजपा का साथ छोड़कर सपा से हाथ मिला लिया है.