बहुत कुछ जानने से बेहतर है खुद को जानना
शिवाकान्त पाठक!
याद रखो, अपने-आपको पहचानना ही श्रीभगवान को पहिचानने की कुँजी है। इसी विषय में किसी महापुरुष ने कहा है कि जिसने अपने को पहिचाना है उसने निःसन्देह अपने प्रभु को भी पहिचान लिया है। तथा प्रभु भी कहते हैं कि मैंने अपने ही लक्षण जीवों के हृदय में प्रकट किये हैं, जिससे कि वे अपने को पहिचान कर फिर मुझे भी पहिचानें। सो, भाई! तेरे आस-पास ऐसा और कोई नहीं है जिसे पहचानना तेरे लिये अपने-आपको पहिचानने से अधिक आवश्यक हो। पहले जब तू अपने को भी नहीं पहचानता तो और किसी को कैसे पहचानेगा? यदि तू कहे कि मैं अपने को तो पहचानता हूँ, तो तेरा यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि जिस रूप में तू अपने को पहचानता है तेरी वह पहिचान श्रीभगवान को पहिचानने की कुँजी नहीं हैं। तू जो अपने को हाथ, पाँव एवं माँस आदि से युक्त स्थूल शरीर समझता है तथा भूख होने पर आहार की इच्छा करने वाला, क्रोधित होने पर लड़ने-झगड़ने वाला और कामातुर होने पर भोगवासना से व्याकुल और उसी संकल्प में डूब जाने वाला जानता है, सो इस प्रकार की पहिचान में तो पशु भी तेरे समान हैं। अतः तुझे यह वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये कि मैं क्या वस्तु हूँ, कहाँ से आया हूँ, किस जगह जाऊँगा, किस निमित्त से मैं संसार में आया हूँ, किस कार्य के लिये भगवान ने मुझे उत्पन्न किया है, मेरी भलाई किस में है और क्या मेरा दुर्भाग्य है? इसके अतिरिक्त यह भी देखना चाहिये कि तेरे भीतर जो दैवी और पाशविक वृत्तियों का संघटन हुआ है उनमें किस प्रकार की वृत्तियों की प्रबलता है। तथा साथ ही यह भी पहिचान कि तेरा अपना स्वभाव क्या है और पर-स्वभाव क्या है?