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जातिगत जनगणना को लेकर बिहार में सियासत तेज

पटना. बिहार में जातिगत जनगणना कराने के मुद्दे पर भाजपा को छोड़ तमाम पार्टियाँ एक सुर में बोलती दिख रही हैं, साथ ही ये भी बताना नहीं भूल रही हैं कि जिसकी जितनी आबादी है उसके हिसाब से तमाम बातें तय हों लेकिन इसके बावजूद मात्र 16 से 17 प्रतिशत आबादी वाले सवर्ण समुदाय की पूछ बिहार की सियासत में लगातार बढ़ती जा रही है.

राजदः बिहार में राष्ट्रीय पार्टी हो या क्षेत्रीय पार्टी हर पार्टी ने अपने-अपने दल में सवर्ण समुदाय के नेताओं को ख़ासा तवज्जो दे रखा है. बात अगर राजद की करें तो लालू यादव की सेहत ठीक नहीं होने की वजह से तेजस्वी यादव ने पार्टी की बागडोर पूरी तरह से सम्भाल रखी है लेकिन उसके बाद राजद के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर जगदानंद सिंह को बिठाया है जो सवर्ण यानी राजपूत समाज से आते हैं और उनकी राजद में खासी पूछ भी है, जबकि राजद को सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टी के तौर पर जाना जाता है.

 

जेडीयूः जेडीयूःके सर्वेसर्वा नेता तो नीतीश कुमार हैं जो पिछड़ो की राजनीति के लिए ख़ासकर लव कुश समीकरण के साथ साथ अति पिछड़ा की राजनीति के लिए जाने जाते हैं लेकिन जेडीयूः में राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर ललन सिंह को बिठा कर जो सवर्ण जाति यानी भूमिहार समाज से आते हैं एक नई राजनीति की शुरुआत करते दिख रहे हैं. ललन सिंह की अहमियत जेडीयूःमें क्या है ये राजनीति को जानने वाले बेहतर समझ सकते हैं.

कांग्रेसः भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी माने जाने वाली कांग्रेस भी सवर्ण समुदाय पर अपना भरोसा कितना जताती है, इसी से समझ सकते हैं कि विधायक दल के नेता पद पर अजित शर्मा जो सवर्ण समुदाय भूमिहार समाज से आते है बैठे हुए हैं वहीं प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर मदन मोहन झा विराजमान हैं जो ब्राह्मण समाज से आते हैं. यानी दो प्रमुख पदों पर सवर्ण समाज के नेताओं को बिठा कर कांग्रेस ने बड़ा मैसेज देने की कोशिश की है कि उनके लिए सवर्ण समुदाय क्या महत्व रखता है.

 

भाजपाः भाजपा के बारे में अमूमन धारणा यही है कि वो सवर्ण की राजनीति करती है लेकिन बिहार में इसकी तस्वीर भी दिखती है. बिहार प्रदेश अध्यक्ष अध्यक्ष के पद पर संजय जायसवाल बैठे हुए है जो वैश्य समाज से आते हैं तो वही विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर जो काफ़ी प्रतिष्ठित माना जाता है विजय सिन्हा विराजमान है जो सवर्ण समाज यानी भूमिहार समाज से आते हैं, वही विधान परिषद में सभापति भी अवधेश नारायण सिंह बैठे हुए है जो सवर्ण यानी राजपूत समाज से आते हैं. भाजपा कोटे से नीतीश मंत्रिमंडल में भी सवर्ण समाज के नेताओ की संख्या अच्छी ख़ासी है.

बिहार के जाने माने पत्रकार अरुण पांडे बताते हैं कि सवर्ण समाज की अहमियत बढ़ने की एक बड़ी वजह ये भी है की तमाम पार्टियां पिछड़ों, अति पिछड़ो और दलितों की राजनीति करती हैं और उनके पार्टी के सबसे प्रमुख नेता भी इसी समाज से आते हैं. हर पार्टी का अपना अपना ख़ास वोट बैंक भी है ऐसे में सवर्ण समुदाय का वोट प्रमुख हो जाता है और सवर्ण समाज का वोट आक्रामक वोट होता है. जो भी पार्टी के उसके अपने समीकरण वाले वोट बैंक के साथ सवर्ण समाज का वोट जुड़ता है तो उसका पलड़ा भारी हो जाता है. इसी वजह से सवर्ण समाज की अहमियत बढ़ी है बिहार की सियासत में.

जातिगत जनगणना पर अरुण पांडे का मानना है की जातिगत जनगणना होनी चाहिए क्योंकि बिहार में जाति की राजनीति एक कटु सत्य है और इसे इंकार नही किया जा सकता है. बिहार की क्षेत्रीय पार्टी किसी ना किसी ख़ास जाति से बंधी दिखती हैं. ये महज़ संयोग ही है कि बिहार में धुर विरोधी लालू यादव और नीतीश कुमार के सुर एक दिख रहे हैं. अब नीतीश कुमार के ऊपर ये प्रेशर बढ़ जाएगा कि क्या वो बिहार में राज्य सरकार के खर्च पर जातिगत जनगणना कराएंगे.

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