क्या शादी की उम्र बढ़ाने वाला विधेयक असंवैधानिक है?

संशोधन के जरिए तीन बदलावों को प्रस्तावित किया गया है. इनमें पहला है, महिलाओं की विवाह की उम्र को बढ़ाए जाने का कानून. धारा 2 (अ) में बच्चे की परिभाषा में संशोधन करके इस कानून में बदलाव किया जाना है, अब कानून के तहत बच्चे का मतलब ऐसा पुरुष या महिला जिन्होंने 21 साल की उम्र पूरी नही की हो. यानी इस विधेयक के बाद अब महिला और पुरुष दोनों की विवाह उम्र एक समान होगी, पहले यह कानूनन 18 और 21 थी.
दूसरा यह कानून बाल विवाह को शून्य घोषित करने के लिए दायरा बढ़ाएगा, इससे पहले बाल विवाह निषेध था, लेकिन शून्य करार नहीं दिया जा सकता था. लेकिन अब अगर कोई याचिकाकर्ता बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा 3 (4) के तहत याचिका दायर करता है तो अदालत उस विवाह को अमान्य घोषित कर सकती है. शून्य विवाह, तलाक के बजाए कानूनी दृष्टि से इस तरह लिया जाएगा कि विवाह कभी हुआ ही नहीं. इस धारा के तहत याचिका कभी भी दायर की जा सकती है, लेकिन वर्तमान में धारा 3 (4) के तहत बच्चे को याचिका दायर करने से पहले वयस्कता के दो साल पूरे होने चाहिए. यानी बाल विवाह को शून्य घोषित करने के लिए महिला 20 की होने से पहले और पुरुष 23 से पहले याचिका दे सकता है. इसके बाद विवाह को वैध माना जाएगा और वह तलाक के लिए अर्जी दे सकते हैं. विधेयक महिला और पुरुषों को वयस्क होने के 5 साल बाद तक अर्जी देने का दायरा बढ़ाता है, क्योंकि दोनों ही 18 की उम्र में वयस्क होते हैं. ऐसे में दोनों बाल विवाह को 23 का होने से पहले या शादी की न्यूनतम आयु तक पहुचने के दो साल बाद तक शून्य घोषित करने के लिए याचिका दे सकते हैं.
तीसरा अहम बदलाव जो प्रस्तावित है, वह है इसके बावजूद, खंड की प्रस्तुति. यह सभी धर्म में बाल विवाह निषेध को बराबरी से लागू करता है, यहां इसके बावजूद का मतलब ही यह है कि किसी भी रीति रिवाज के बावजूद कानून सभी पर एक जैसा लागू होगा.
विवाह की उम्र को बढ़ाने को लेकर जो मुख्य तर्क दिए जा रहे हैं वह महिलाओं की सेहत से जुड़े हैं, जैसे शिशु मृत्यु, मां की मृत्यु, बच्चों और मां के पोषक स्तर में कमी. चूंकि वयस्कता की उम्र 18 वर्ष है ऐसे में विवाह की उम्र को बढ़ाना राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के निजी मामले में पितृसत्तात्मक नजरिए से देखी जाती है. इसके अलावा बाल विवाह कानून का लागू होना पर्सनल लॉ पर बहस के लिए मंच तैयार करता है.
इसको लेकर लोकसभा में भारतीय यूनियन मुस्लिम लीग के ईटी मोहम्मद बशीर ने कहा कि
इसके विरोध में दूसरा तर्क यह है कि न्यूनतम उम्र बढ़ाने से कई शादियां गैरकानूनी हो जाएंगी और इसका असर कमजोर तबके पर पड़ेगा. चूंकि मौजूदा कानून बाल विवाह को स्वत: गैरकानूनी घोषित नहीं करता है, ऐसे में न्यूनतम उम्र के बढ़ाने से महिलाओं को वास्तविक रूप से शायद कोई फायदा नहीं पहुंचे. हां लेकिन ऐसे लोग जो महिलाओं के 18 साल होने पर उनके विवाह के खर्च को वहन करते हैं उन्हें कानून के दायरे में ला सकते है. जिसमें कानून के तहत दो साल की सजा का प्रावधान है.
2006 के कानून को बाल विवाह रोकने के लिए एक विशेष कानून माना जाता है, जहां विशेष कानून, सामान्य कानून के ऊपर लागू किया जाता है. विशेषज्ञ मानते हैं कि बाल विवाह निषेध अधिनियम खुद खामियों से भरा हुआ है क्योंकि यह साफ तौर पर यह नहीं कहता है कि कानून सामान्य कानून से बढ़कर है. मुस्लिम कानून किशोरावस्था आते ही विवाह की मंजूरी देता है, जो कानूनी तौर पर 15 वर्ष मानी जाती है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मुस्लिम पर बाल विवाह कानून लागू किया जा सकता है.
उच्च न्यायालय अपनी व्याख्या में कानून से मतभेद रखता है.कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सीमा बेगम पुत्री खासिमसब बनाम कर्नाटक राज्य (2013) के मामले में एक फैसला देते हुए कहा, “कोई भी भारतीय नागरिक अपने किसी विशेष धर्म से संबंधित होने के आधार पर, पीसीएम के आवेदन से छूट का दावा नहीं कर सकता है “.
वहीं इस साल फरवरी में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक मुस्लिम जोड़े (17 साल की लड़की और 36 साल का पुरुष) को मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत कानूनी विवाह के तहत सुरक्षा मुहैया कराने का फैसला दिया. उच्च न्यायालय ने बाल विवाह निषेध अधिनियम के प्रावधानों की जांच करते हुए कहा कि, चूंकि विशेष कानून, व्यक्तिगत कानूनों को ओवरराइड नहीं करता है, इसलिए मुस्लिम कानून प्रबल माना जाएगा.
ऐसे कई मामले हैं जहां पर पर्सनल लॉ ने धर्मनिरपेक्ष या भारतीय कानून को बदला है. इसमें सबसे अहम मामला तो शाहबानो बनाम इमरान खान का है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि एक तलाकशुदा महिला आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद भी गुजारे भत्ते की हकदार होती है. जब तक वह दूसरी शादी नहीं कर लेती है. वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत इद्दत की अवधि के दौरान ही गुजारा भत्ता दिए जाने का प्रावधान होता है.
इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में केरल उच्च न्यायालय के इस विचार से सहमति जताई थी कि भले ही चर्च तलाक दे सकता है या किसी ईसाई विवाह को रद्द कर सकता है, लेकिन चर्च एक पक्ष की दूसरे से तब तक शादी नहीं करा सकता है जब तक अदालत उस विवाह को भंग नहीं कर देती है.
ऐसे ही शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत दिये जाने वाले तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया था, हालांकि मुस्लिम कानून के तहत यह प्रदान किया जाता है.