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अफगानी कट्टरपंथी जो अब बने ‘पावर सेंटर’

नई दिल्ली. तालिबान ने उत्तरी अफगानिस्तान के बड़े इलाके पर मंगलवार को अपना कब्जा मजबूत कर लिया. अब वो उत्तरी अफगानिस्तान के सबसे बड़े शहर मजार-ए-शरीफ पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रहे हैं. इस वक्त आतंकी संगठन का देश के करीब 65 फीसदी इलाके पर कब्जा हो चुका है.

2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिकी कार्रवाई में तालिबान का शिकंजा अफगानिस्तान में कमजोर हुआ था. लेकिन अब जबकि अमेरिकी सेनाएं देश छोड़ रही हैं तब एक बार फिर तालिबान मजबूत हो रहा है. अगर तालिबानी आतंकी मजार-ए-शरीफ पर कब्जा करने में कामयाब रहे तो ये राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के लिए बड़ा झटका होगा.

तालिबान का उभार 1990 के दशक में हुआ था. अफगान मुजाहिदीन या फिर इस्लामिक गुरिल्ला लड़ाकों ने इससे पहले करीब डेढ़ दशक तक सोवियत के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था.इन आतंकियों को बाहरी शक्तियों द्वारा फंड दिया जाता था जिनमें अमेरिका भी शामिल था.

दरअसल 1989 में सोवियत ने खुद को अफगानिस्तान से अलग कर लिया था. इसके बाद उस वक्त की अफगान सरकार ढह गई क्योंकि वो सरकार पूरी तरह से सोवियत संघ पर निर्भर थी. 1992 में देश में मुजाहिदीन सरकार बनी लेकिन इसे लेकर काबुल की सड़कों पर खूब खून बहा.

ऐसी स्थितियों ने तालिबान जैसे संगठन की नींव रखने के लिए एक उर्वर जमीन तैयार की. माना जाता है कि तालिबान की शुरुआत उत्तर पाकिस्तान के अरब के फंड से चलने वाले कट्टरपंथी मदरसों में हुई. इनमें से कुछ वो मुजाहिदीन भी थे जिन्होंने सोवियत के खिलाफ जंग छेड़ी थी. महज दो साल के भीतर यानी 1996 तक तालिबान ने काबुल पर कब्जा जमा लिया था.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन घोषणा कर चुके हैं कि उनके सभी सैनिक 31 अगस्त तक अफगानिस्तान छोड़ देंगे. सिर्फ 650 सैनिक अफगानिस्तान में छोड़ने की बात की गई थी जो काबुल स्थित अमेरिकी उच्चायोग की रक्षा करेंगे. बीते सप्ताह भी बाइडन ने अपनी बात दोहराई थी और कहा था कि 11 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की 20वीं बरसी पर उनके सैनिक वापस हो चुके होंगे. अमेरिका का मानना है कि उसने ओसामा बिन लादेन को मार दिया और अल कायदा को खत्म कर दिया है. अब अफगानी जमीन का इस्तेमाल अमेरिका पर हमले के लिए नहीं होगा. अब अफगानिस्तान निर्माण का काम वहां के स्थानीय लोगों पर ही छोड़ देना चाहिए.

लेकिन इस बीच तालिबान के टॉप नेताओं की मुलाकात चीन के विदेश मंत्री से हुई है. तालिबान ने चीन को भरोसा दिया है कि उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. अफगानिस्तान और चीन की सीमा आपस में लगती है. चीन को ये चिंता हमेशा सताती रहती है कि उसके अशांत जिनजियांग प्रांत के उईघर मुस्लिम समुदाय में आतंक की जड़ें न जमें. मुलाकात के बाद चीनी विदेश मंत्री
यही नहीं तालिबानी नेताओं ने रूस को भी भरोसा दिया है कि उनकी तरफ से मॉस्को को कोई खतरा नहीं महसूस करना चाहिए. तालिबान के प्रवक्ता ने रूस को अपना दोस्त बताया है. वहीं पाकिस्तान में तो तालिबान का हेडक्वार्टर ही है. पाकिस्तान की तरफ से तालिबान को पूरा समर्थन मिल रहा है. खुद प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक इंटरव्यू में तालबानियों को ‘आम नागरिक’ कहकर पुकारा है. भारत के भी अफगानिस्तान में बड़े हित हैं. भारत ने अफगानिस्तान में तीन बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है और अफगानिस्तान शांति प्रक्रिया का सबसे बड़ा पक्षधर रहा है.

लेकिन इन सबके बीच पाकिस्तान के कट्टरपंथी मदरसों से निकले मुजाहिदीन अफगानिस्तान की सड़कों पर हर दिन रक्तपात कर रहे हैं. अफगानिस्तान सरकार आतंकियों से लड़ रही है लेकिन देश का बड़ा हिस्सा उसके कब्जे से निकल गया है. चीन जैसे देश तालिबान को राजनीतिक ताकत करार देने पर तुले हुए हैं.

 

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